Book Title: Tirthankar 1975 06 07
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 183
________________ का शोधक होता है, वह तटस्थ होता है, पक्षपात से मुक्त | जब उसके सामने प्रश्न आयेगा कि अमुक तो माना हुआ तथ्य है । वह कहेगा -- चाहे माना हुआ हो, पर सत्य यह है । कुछेक वैज्ञानिकों के लिए कहा जा सकता है कि वे ज्ञान-समाधि में थे । सब वैज्ञानिक नहीं, किन्तु कुछेक । अल्बर्ट आइन्स्टीन के जीवन को देखने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि वह ज्ञान की समाधि और योगी की स्थिति में था । वह साधक था । वह साधना का जीवन जी रहा था। उस समय उसके सामने एक प्रश्न आया -- इलेक्ट्रॉन क्या है ? वह तरंग है या कण ? कण स्थिर होता है और तरंग गतिशील । वास्तव में वह है क्या ? इलेक्ट्रॉन न केवल स्थिर है और न गतिशील । वह दोनों है । यह स्थापना की आइन्स्टीन ने । पहले ऐस नहीं माना जाता था । आइन्स्टीन ने कहा- “ पहले के वैज्ञानिकों ने इसे कैसे माना मैं नहीं कह सकता; पर इलेक्ट्रॉन कण और तरंग दोनों हैं । ये दोनों विरोधी अवश्य हैं । वह कण भी और तरंग भी कैसे हो सकता है, मैं नहीं जानता। पहले क्या माना जाता था, मैं नहीं जानता किन्तु ये दोनों कण और तरंग सामने हैं, प्रत्यक्ष हैं । ऐसा घटित हो रहा है।' इस तथ्य की अभिव्यक्ति के लिए आइन्स्टीन ने एक शब्द चुना 'क्वाण्टा' जहाँ गतिशीलता भी है और स्थायित्व भी है। पहले क्या माना जाता था, परस्पर में विरोध दिखायी दे रहा है -- इन सबसे परे हटकर आइन्स्टीन कहता है कि मैं नहीं जानता यह क्यों है, पर है यह ऐसा ही । क्यों है -- यह भी मैं नहीं जानता । पर है--यह सत्य है, इसे जानता हूँ। जो सत्य सामने आ रहा है, उसी को मैं कह रहा हूँ ।' सत्य के लिए समर्पित होता है ज्ञानयोगी । उसके मन में कोई पूर्वाग्रह नहीं होता कि कल क्या माना जाता था, आज क्या माना जाता है या परसों क्या माना जाएगा ? उसके मन में यह विकल्प ही नहीं उठता कि कल मैंने क्या कहा था ? आज क्या कह रहा हूँ ? तात्विक आदमी के मन में यह विचिकित्सा हो सकती है कि कल मैंने इस सन्दर्भ में यह कहा था तो आज मैं उसी सन्दर्भ में ऐसे कैसे कह सकता हूँ ? किन्तु दो प्रकार के व्यक्तियों के मन में यह विचिकित्सा नहीं होती - - एक तो राजनीतिक व्यक्ति के मन में और दूसरे सत्य शोधक के मन में। कुशल राजनीतिज्ञ वह माना जाता है जो सुबह एक बात कहे और दोपहर में दूसरी बात कहे और यह भी सिद्ध कर दे कि उस समय वह बात ठीक थी तथा अब यह बात ठीक है । सत्य शोधक भी वही हो सकता है जो सुबह एक बात कहे और दोपहर में दूसरी ! किन्तु उसके सामने कोई तर्क नहीं होता । वह कहेगा-'भाई ! मुझे उस समय वह सत्य लग रहा था और अब यह सत्य लग रहा है ।' श्रीमज्जाचार्य सत्य-संधित्सु थे, योगी थे, ज्ञानयोगी थे, ध्यान-योगी थे । उनसे पूछा गया -- 'आपके पूर्वज आचार्य भिक्षु ऐसा कहते थे और आप ऐसा कर श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक / १७९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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