Book Title: Tirthankar 1975 06 07
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

View full book text
Previous | Next

Page 185
________________ सहज श्रद्धा ___जैन-धारा में गृहस्थों के लिए एक शब्द है श्रावक । बड़ा पुराना शब्द है। अन्य किसी धर्म अथवा आम्नाय में इसका प्रयोग नहीं हुआ, यहाँ तक कि बौद्धों में भी नहीं। श्रावक में 'श्रा' महत्त्वपूर्ण है। उसका अर्थ है श्रद्धान । श्रावक वह है, जो श्रद्धा करता हो। श्रावक को श्रद्धा के बल पर ही सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। - डॉ. प्रेमसागर जैन भक्ति सार्वभौम है। सभी धर्म, पंथ और सम्प्रदाय भक्ति-समन्वित हैं। उनके विचार, दर्शन और आराध्य देव के नामों में कितना ही अन्तर हो किन्तु भावसंकुल हृदय एक-सा है। 'ज्ञानादेवतु कैवल्यम्' के प्रख्यात संन्यासी शंकराचार्य 'मोक्षकारणसामग्रयां भक्तिरेव गरीयसी' कहे बिना न रह सके। 'भज गोविन्दं तो उनके भावोच्छ्वासों से भरा अमर गीत है। आगे का संसार भले ही 'अद्वैतवाद' को भूल जाएँ, किन्तु 'गोविन्दं भज मूढमते' अविस्मरणीय रहेगा। यह उनकी हृदय-सिद्धि का प्रतीक है और इसी कारण देश-काल की सीमाओं से परे है । जीवन-पर्यन्त प्रतिपद पर बल देते बुद्ध के चरणों को पकड़ कर सारिपुत्त ने कहा, 'भन्ते इन चरणों की वन्दना के लिए शत-सहस्र कल्पों से भी अधिक काल तक मैंने असंख्य परिमिताएँ पूरी की हैं।' इसी भाँति बुद्ध के परिनिर्वाण के समय आनन्द ने कहा था- 'मैंने परम श्रद्धा के साथ बुद्ध की सेवा की है।' शायद इसी कारण ज्ञान-बहुल 'मिलिन्द प्रश्न' में भी एकाधिक स्थलों पर बुद्ध की पूजा और भक्ति के प्रसंग आये। महायान दर्शन तो भक्ति-तत्त्व ही है। आगे चल कर, बौद्ध तंत्र में तारा जैसी एक सामर्थ्यवान देवी का आविर्भाव हुआ, जिसकी भक्ति भारत में ही नहीं, अन्य देशों में भी स्वीकारी गयी। एकदम आध्यात्मी, वीतरागी आर्हत् जैनों ने भी भक्ति के राग को परम्परया मोक्षरूप कहा । 'समयसार'-जैसे महान् दार्शनिक ग्रन्थ का रचयिता 'लोगस्ससूत्त' लिखे बिना न रह सका। एक ओर 'सर्वार्थसिद्धि' की रचना और दूसरी ओर "अर्हदाचार्येषु बहुश्रुतेषु प्रवचने च भावविशुद्धि युक्तोऽनुरागो भक्तिः ।” में रमा मन एक ओर पैनी तार्किक प्रतिभा और दूसरी ओर 'स्वयम्भू स्तोत्र' में छलकता भक्ति-रस-साथ-साथ चलते रहे। हृदय को जो सहजता भक्ति में मिली, न ज्ञान में, न अध्यात्म में। कारण है उसका जीवन से गहरा सम्बन्ध । भक्ति ही जीवन है। नदी का समुद्र की ओर बहना, श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/१८१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210