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यहाँ नगर-संस्कृति का अच्छी तरह से प्रचार-प्रसार हुआ-हुआ ही था; परन्तु जो उत्साह एवं शारीरिक पराक्रम इन घुमक्कड़ आर्यों ने दिखाया, वैसा अर्से से स्थिर हो गये भारतीयों ने नहीं दिखाया हालांकि उनमें बुद्धिबल अधिक था। यह सहज समझ में आने जैसी बात है।
परिणाम यह हुआ कि आर्यों के इस शारीरिक बल के सामने पहले से स्थिर नागरिकों का बुद्धिबल टिक नहीं पाया और बहुत पुरों-नगरों का नाश कर इन्द्र विजयी हो गया और उसने इस प्रकार पुरन्दर याने पुर-नगर-भंजक का विरुद भी अपने लिए प्राप्त कर लिया। इस प्रकार भारतवर्ष की प्राचीन नगर-संस्कृति प्रायः नष्ट हो गयी। अनेक मुनि-यतियों का भी तब नाश कर दिया गया, ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं। मोहन-जो-दड़ो और हडप्पा के उत्खननों में अनेक मूर्तियाँ एसी प्राप्त हुई हैं, जो ध्यानमुद्रा-स्थिति की हैं। इनसे यह एक अनुमान लगाया जा सकता है कि उस भारतीय नगर-संस्कृति के नेता योग का अभ्यास करते होंगे। आर्यों के इन्द्र ने जिन मुनियों अथवा यतियों को मौत के घाट उतारा, वे यही होंगे ऐसा भी उन मूर्ति-अवशेषों से दूसरा अनुमान निकाला जा सकता है। किसी भी लिखित प्रमाण के अभाव में उन मुनियों-यतियों के धर्म का नाम क्या होगा, यह कहना कठिन है; फिर भी बुद्ध और महावीर के समय की दो पृथक्-पृथक् विचारधाराओं--श्रमण और ब्राह्मण का जैन और बौद्ध धर्म-ग्रन्थों में हमें स्पष्ट निर्देश मिलता है। यज्ञविधि-विधानों से भरपूर यज्ञ-संस्कृति के उपलब्ध ग्रन्थ, जो 'ब्राह्मण' नाम से पहचाने जाते हैं, स्पष्ट कह रहे हैं कि इस संस्कृति का सम्बन्ध 'ब्राह्मण-विचारधारा' नाम से तब पहचानी जाती धारा से ही था। इससे यह भी कहा जा सकता है कि तत्कालीन दूसरी विचारधारा का सम्बन्ध 'श्रमण-विचारधारा' से ही होना चाहिये। इससे यह कल्पना भी सहज ही होती है कि बुद्ध और महावीर से पूर्व के भारतवर्ष में धर्म के दो भेद अर्थात् श्रमण और ब्राह्मण थे।
भूत याने बाह्यजगत-विजेता की संस्कृति ब्राह्मण-संस्कृति थी; अतः उसकी विरोधी याने आत्म-विजेता की संस्कृति 'श्रमण-संस्कृति' होनी चाहिये, यह सहज ही फलित हो जाता है। भूत-विजेता जैसे इन्द्रादि देव प्रसिद्ध हैं, और उन्हें ब्राह्मणपरम्परा में उपास्यपद प्राप्त हैं, वैसे ही इस 'श्रमण-संस्कृति' के जो आत्म-विजेता हुए, वे 'जिन' नाम से प्रख्यात थे। मोहन-जो-दड़ो आदि से प्राप्त ध्यान-मुद्रा-स्थित शिल्प इसलिए इनके आत्म-विजय के प्रयत्नों के सूचक होने चाहिये, ऐसा सहज ही अनुमान किया जा सकता है।
इन्द्र में क्षात्र तेज था, परन्तु ब्रह्मतेज के सामने वह परास्त हो गया, इस लिए क्षात्रतेज मूलाधार होते हुए भी वह क्षात्र संस्कृति 'ब्राह्मण-संस्कृति' के नाम से ही प्रसिद्ध हुई, जबकि इस क्षात्र तेज का ही रूपान्तर आभ्यन्तर आत्मतेज में हुआ। शारीरिक तेज अथवा बल यथार्थ बल नहीं, अपितु आभ्यन्तर तेज-आत्मिक बल ही
तीर्थंकर : जून १९७५/१६६
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