Book Title: Tirthankar 1975 06 07
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 172
________________ ब्राह्मण-परम्परा में जैसे अनेक मत-मतान्तर हैं, वैसे ही श्रमण-परम्परा मे भी अनेक मत-मतान्तर हैं। एक ही वेद के अर्थ में मतभेद होने से ब्राह्मण-सम्प्रदाय में जैसे अनेक सम्प्रदाय हुए, वैसे ही अनेक जिनों (तीर्थंकरों) के उपदेश में पार्थक्य होने के कारण श्रमणों में अनेक सम्प्रदाय हो गये, जैसे कि आजीवक, निर्ग्रन्थ, बौद्ध आदि। ये सभी सम्प्रदाय जिनोपासक होने से 'जैन' कहे जाते हैं। बौद्ध सम्प्रदाय को छठी शताब्दी तक जैन नाम से भी पहचाना जाता था, यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। आजीवक भी दिगम्बर जैन या क्षपणक नाम से इतिहास में परिचित हुए, यह भी तथ्य है; परन्तु आज रूढ़ि यह है कि भगवान् महावीर के अनुयायी ही जैन नाम से पहचाने जाते हैं। श्रमणों का दूसरा सम्प्रदाय जो भगवान् बुद्ध का अनुयायी है, आजकल बौद्ध नाम से पहचाना जाता है। आजीवक और तत्कालीन इतर श्रमण सम्प्रदायों का तो नामोनिशान तक नहीं रहा है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि “जैन" शब्द का एक व्यापक अर्थ होते हुए भी उसका अर्थ आज तो बहुत ही संकुचित हो गया है। विशाल अर्थ में जो भी 'जिन' का उपासक हो, वह जैन है; परन्तु संकुचित अर्थ में आज भगवान् महावीर की परम्परा का अनुसरण करने वाला ही “जैन" कहलाता है। भगवान् महावीर जैसे जिन, सुगत, श्रमण, तथागत, अर्हत्, तीर्थकर, बुद्ध आदि नामों से पहचाने जाते हैं, वैसे ही भगवान् गौतम बुद्ध भी जिन, सुगत, श्रमण, तथागत, अर्हत्, तीर्थंकर, बुद्ध आदि नामों से पहचाने जाते हैं। यह इतना सूचन करने के लिए पर्याप्त है कि ये दोनों महापुरुष एक ही श्रमण-परम्परा के होने चाहिये। हैं भी। परन्तु एक परम्परा में अर्हत् अथवा जिन नामों पर अधिक भार दिया गया, अतः वह परम्परा आज आर्हत् परम्परा अथवा जैन परम्परा के नाम से प्रसिद्ध हो गयी है जबकि दूसरी परम्परा ने बुद्ध अथवा तथागत नाम पर अधिक भार दिया और इसलिए वह परम्परा बौद्ध परम्परा के नाम से पहचानी जाने लगी है। ऊपर श्रमण और ब्राह्मण के पार्थक्य और समन्वय की चर्चा की जा चुकी है। इस विषय में यह स्पष्ट कहना आवश्यक है कि श्रमणों की आत्म-विद्या का यद्यपि ब्राह्मणों ने स्वीकार कर लिया, फिर भी श्रमण और ब्राह्मण के बीच जो एक भारी अन्तर, उपनिषद्-युग में ही नहीं अपितु उसके बाद भी, देखा जाता है, उस पर यहाँ थोड़ा विचार करना आवश्यक है। ब्राह्मणों की रुचि आत्मविद्या की ओर बढ़ी एवं ब्रह्मज्ञ ऋषियों का ब्राह्मणों में बहुमान भी होने लगा; परन्तु इन ब्रह्मज्ञ माने जाने वाले ऋषियों की चर्या और उसी काल के लगभग होने वाले तीर्थकरों अथवा इससे कुछ ही उत्तरकाल में होने वाले भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध की चर्या की ओर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो दोनों में हमें वह भारी अन्तर स्पष्ट ही दीख पड़ता है। यह अन्तर है ज्ञान एवं क्रिया अर्थात् चारित्र्य का। ब्रह्मर्षि ब्रह्मज्ञान-तत्त्वज्ञान में निपुण-पटु हैं; परन्तु उनका चारित्र्यपक्ष निर्बल है। याज्ञवल्क्य जैसे महान् तत्त्वज्ञ ब्रह्मर्षि के जीवन की घटनाओं को तीर्थंकर : जून १९७५/१६८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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