Book Title: Tirthankar 1975 06 07
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 177
________________ __ वैदिक परम्परा में परम उपास्य की करुणा हो तभी परम से पृथक् हुए जीवों का फिर से परम में मिल जाना, समा जाना सम्भव है। परम भाव प्राप्त करने को जीव परम की उपासना द्वारा करुणा प्राप्त करे। परम भाव प्राप्ति का यही स्वाभाविक क्रम है; परन्तु श्रमणों में ऐसा कोई परम तत्त्व नहीं है अतएव उसके साथ मिल जाने अथवा उसमें समा जाने का वहाँ प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। इसीलिए श्रमणों में ऐसे मौलिक परम तत्त्व की उपासना को कोई भी स्थान नहीं है; परन्तु अनादि काल से संसार का जो चक्र चलता है, उसकी गति रोकने को पुरुषार्थ की वहाँ कृतार्थता है। ऐसा पुरुषार्थ जिन्होंने किया हो, वे व्यक्ति आदर्श रूप बनते हैं और वैसा पुरुषार्थ कोई भी करे तो वह उसका अनुकरण-मात्र करता है, न कि उसकी उपासना ऐसा मानना चाहिये। परन्तु श्रमणों में ब्राह्मणों की देखादेखी उपासना-तत्त्व प्रवेश पा ही गया। परन्तु उनकी मूलनिष्ठा में भेद होने के कारण, उनकी उपासना एकपक्षीय उपासना है; क्योंकि उनका उपास्य उपासक के लिए कुछ भी करने को समर्थ नहीं है। यह उपास्य मात्र ऐसा ध्रुव तारा है जिसको दृष्टि के समक्ष रखता हुआ उपासक अपना मार्ग आप ही निश्चित करता है; याने सच्चे अर्थ में इसे उपासना कहा ही नहीं जा सकता है। फिर भी ब्राह्मण-परम्परा के समान श्रमण-परम्परा की उपासना में मन्दिर और मति के आडम्बरों को पूर्णतया स्थान मिल ही गया। इसको श्रमणों का तात्त्विक धर्म नहीं अपितु बाह्य धर्म ही मानना चाहिये। इस उपासना का स्पष्टीकरण इस प्रकार भी किया जा सकता है कि उपासना परम तत्त्व की हो अथवा अपनी, परन्तु बाह्य आचार में तो उसका मार्ग एक-सा ही हो सकता है। भेद हो तो इतना ही कि एक परम तत्त्व को प्राप्त करने को प्रयत्नशील है तो दूसरा अपने ही को प्राप्त करने के लिए मथ रहा है। एक की दृष्टि में परम वस्तुत: उपासक से पृथक नहीं है जबकि दूसरे की दृष्टि में भी आप अपने से पृथक् नहीं हैं। एक की दृष्टि में उपास्य आदर्शभूत परम तत्त्व मूलतः एक ही है और अन्त में भी एक ही है; परन्तु दूसरे की दृष्टि में मूल में और अन्त में कहीं अपने से भिन्न नहीं होते हुए भी पर से तो वह भिन्न है ही। इस भेद के कारण ब्राह्मण और श्रमण की निष्ठा-विश्वास-मान्यता में जो भेद है, उसका सम्पूर्ण समन्वय तो कभी हो ही नहीं सकता है और जिस सीमा तक यह सम्भव था, उतना तो दोनों समाजों ने कर ही लिया है। ( श्री कस्तूरचन्द बांठिया द्वारा गुजराती से अनुवादित ) श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/१७३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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