________________
नहीं था, सब काय-क्लेश को महत्त्व देते थे। तन के तापस तो थे मन के तपस्वी नहीं थे। ऐसे विषम समय में पार्श्वनाथ ने चातुर्याम की बात कही। उन्होंने कहा : 'हिंसा मत करो, झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, परिग्रह से बचो।' अन्य शब्दों में उन्होंने अहिंसा अर्थात् करुणा, क्षमा, मैत्री, बन्धुत्व, सत्य, अस्तेय अर्थात् अचौर्य; तथा त्याग की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया। इनसे एक नयी सामाजिकता ने जन्म लिया और मनुष्य मनुष्य के अधिक निकट आने लगा। उसका एक-दूसरे के प्रति विश्वास बढ़ा और विशुद्ध अध्यात्म की ओर ध्यान गया।
जब हम पार्श्वनाथ की समकालीन परिस्थितियों का जायजा लेते हैं तो ऐसा लगता है कि उस समय तक परिग्रह का सूक्ष्म विश्लेषण नहीं हो पाया था, उसे मोटे रूप में माना जा रहा था । इतनी सामाजिक और आर्थिक जटिलताएँ नहीं थीं कि उसका अलग से को विज्ञान खड़ा हो। धन-दौलत, यहाँ तक कि स्त्रियाँ और दास-दासियाँ, परिग्रह की परिधि में आ जाते थे। स्त्री-पुरुष-सम्बन्धों को अलग से परिभाषित करने की समस्या सम्भवतः उस समय इतनी जटिल नहीं थी; किन्तु तान्त्रिकों की अराजकता और आध्यात्मिक निरंकुशता के कारण महावीर के युग तक आते-आते अ-ब्रह्मचर्य यानी बिगड़ते हुए स्त्री-पुरुष-सम्बन्धों की ओर लोगों का ध्यान जाने लगा था। लोग सामाजिक और नैतिक शील को परिभाषित करने लगे थे। यही कारण था कि महावीर के जमाने में स्त्री-पुरुष-सम्बन्धों की स्वतन्त्र समीक्षा हुई और पार्श्वनाथ के चातुर्याम से ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की दो अलग व्रत-शाखाएँ फूट निकलीं । अब नारी को परिग्रह की अपेक्षा एक स्वतन्त्र व्यक्तित्व माना जाने लगा। महावीर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने अपने युग की सामाजिकता को एक नया मोड़ दिया और दो बहुत बड़ी कुप्रथाओं का अन्त किया। एक, नारी दासी नहीं है। वह परिग्रह नहीं है जिसकी खरीद-फरोख्त हो; वह पुरुष की तरह ही स्वाधिकार सम्पन्न है और उसे जीवन के सभी क्षेत्रों में समान अधिकार हैं; दूसरे, अपरिग्रह मात्र स्थूल त्याग नहीं है, वह मनुष्य के भावनात्मक और बौद्धिक स्तर से भी सम्बन्धित है; बाह्य त्याग की अपेक्षा भीतर से हुआ त्याग महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने ऐसी कृत्रिमता और कूटभाव को जीवन से निष्कासित किया जो मनुष्य को बर्बर बनाता था और एक-दूसरे से दूर करता था। पार्श्वनाथ ने भी वही सब कुछ किया; किन्तु पार्श्वनाथ और महावीर के बीच ढाई सौ वर्षों का फासला था और भारत की तस्वीर उन दिनों तेजी से बदल रही थी।
कुछ लोग कह सकते हैं कि नेमिनाथ ने राजमती को छोड़ा और पार्श्वनाथ तथा महावीर के जीवन में नारी के लिए जैसे स्थान ही नहीं है। तीनों ने नारी से पलायन किया और एक संघर्ष जिससे उन्हें जूझना चाहिये था, उससे वे बचे; किन्तु जब हम पार्श्वनाथ और महावीर के उपदेशों का समाजशास्त्रीय
तीर्थंकर : जून १९७५/१५६
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org