Book Title: Tirthankar 1975 06 07
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 153
________________ अव्वाबाह--अव्याबाध-न । न विद्यते व्याबाधा यत्र तदव्याबाधम् । द्रव्यतः खड्गाद्यभिघातकृतया, भावतो मिथ्यात्वादिकृतया, द्विरूपया अपि व्याबाधया रहिते । ( १.८१७ ) जिसमें कोई बाधा न हो, उसे अव्याबाध कहते हैं । बाधा - रहित, 'अव्याबाध' है । द्रव्य रूप में खड्ग, कृपाण आदि की बाधा से रहित और भाव रूप में मिथ्यात्व ( अज्ञान) आदि दोनों प्रकार की बाधाओं से रहित । उईरणा -- उदीरणा - स्त्री । अनुदयं प्राप्तं प्रवेश्यते यया सा उदीरणा । ( २. ६५९) कर्म दलिकमुदीर्यते उदयावलिकायां उदय में आये बिना, फल दिये बिना झड़ जाना । उग्गह—–अवग्रह-पुं. । अवग्रहः अनिर्देश्य सामान्य मात्र रूपार्थग्रहणरूपे श्रुतनिश्चितमतिज्ञानभेदे । “अत्याण उग्गहण अवग्गहं इति" निर्युक्ति गाथा । (२.६९७ ) बुद्धि के द्वारा सामान्य रूप से शास्त्र से निर्णीत आकार तथा अर्थ ग्रहण करना । उववाय -- उपपात - पुं । उप पत् घञ हट्टादागतौ, फलोन्मुखत्वे, नाशे, उपसमीपे पतनमुपपातः । दृग्विषय- देशावस्थाने, "आणा णिद्देसयरे गुरूणमुववायकारए" . उत्तरा. १ अ. (२. ९१४ ) - उसम — ऋषभ - पुं.! ऋषति गच्छति परमपदमिति ऋषभः । उदत्वादौ ८।१।३१ इत्युत्वे उसो वृषभ इत्यपि । वर्षति सिचति देशना जलेन दुःखाग्निना दग्धं जगदिति अस्यान्वर्थः। (२. १११३) कसाय — कषाय- पुं. न. । सुहदुक्खबहुसहियं, कम्मखेत्तं कसंति जं जम्हा । कलसंति जं च जीवं, तेण कसाइत्ति वुच्वंति ॥ - प्रज्ञा. १३ पद बहुत सुख-दु:ख के साथ जो कर्म-रूप खेत को जोतती है और जीव को कलुषित करती है, उसे कषाय कहते हैं । " कष शिषेत्यादि हिंसार्थो दण्डकधातुः कष्यन्ते बाध्यन्ते प्राणिनोऽनेनेति कषं कर्मभवों व तदायो लाभ एषां यतस्ततः कषायाः क्रोधादयः । " ( ३. ३९४) " कषाय" शब्द 'कष्' धातु से बना है, जिसका अर्थ हिंसा करना है । जो प्राणियों को कर्मजन्य क्रोध, मान, माया आदि से पीड़ित करती है, उस पीड़ा का लाभ पहुँचाना कषाय है । कारण —- कारण - न. । कारयति क्रियानिर्वर्तनाय प्रवर्तनीय प्रवर्तयति । कृणिच् - ल्युट् । क्रियानिष्पादके । ( ३. ४६५ ) क्रिया की निवृत्ति और प्रवर्तन की प्रवृत्ति कराने वाला कारण है । यह 'कारण' शब्द 'कृ' धातु ( करना) से निष्पन्न हुआ है । क्रिया निष्पन्न करने वाला कारण है । खंध -- स्कन्ध । स्कन्दन्ति शुष्यन्ति क्षीयन्ते च पुष्यन्ते पुद्गलानां चटनेन विचटनेन चेति स्कन्धाः । ( ३. ६९८ ) Jain Education International श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर - विशेषांक / १४९ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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