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जयस्तस्य, प्रमोदश्च प्रमोदपुक् ॥ ॥ सोधर्मवामिनो मने, संति राजेंड्सरयः ॥ तेनेयं कल्प || पातार
खत्रस्य, वार्ता बालावबोधिनी ॥ ५: रुता पत्रपर्युक्ता, सर्वसारांशसंयुता ॥मायोगोघहनं HUSHBIयेन, न रुतं तस्य हेतवे ॥६धब्दे खवेदनो , (१९४०) माधवे च सितेतरे। प दिने
हितीयायां,मंगले लिखिता वियम् ॥७॥ इति श्रीराजेंशिविरचितायां प्रारुतनाषायां बालाव।। बोधिनी टीका कल्पसूत्रस्य समाप्ता ॥ श्रीरस्तु, कल्याणमस्तु ॥ संवत् १९४० ना वेशारलवदि । बीजना दिवसें बालावबोधिनी टीका संपूर्ण थई । जांबुग नगरे ॥
क. सू. की बा. टी. का अन्तिम पृष्ठ (२४८); जिसमें इसकी समापन-तिथि तथा स्थान का उल्लेख है; समापन-तिथि : वैशाख वदी २; संवत् १९४० ; स्थान : जांबुवा नगर।
सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य 'कल्पसूत्र' के भाषिक व्यक्तित्व का है। यह मूलतः जांबुवा नगर में संवत् १९३६ में शुरू हुई और वहीं संवत् १९४० में सम्पन्न हुई। जांबुआ नगर की स्थिति बड़ी उपयोगी है। यहाँ गुजरात और मारवाड़ के लोग भी आते-जाते रहते हैं। इस तरह यहाँ एक तरह से त्रिवेणी संगम का सुख मिलता है। मालवा, गुजरात और मारवाड़ तीन आँचलिक संस्कृतियों के संगम ने जांबुवा को भाषा-तीर्थ ही बना दिया है। श्रीमद् के कारण यहाँ आसपास के लोग अधिकाधिक आते रहे। यातायात और संचार के साधनों की कमी के दिनों में लोगों का इस तरह एकत्रित होना और सांस्कृतिक मामलों पर विचार-विमर्श करना एक महत्त्वपूर्ण तथ्य था। यद्यपि श्रीमद् कई भाषाओं के जानकार थे तथापि मागधी, प्राकृत और संस्कृत पर उन्हें विशेष अधिकारं था। राजस्थानी वे जन्मजात थे, अतः मारवाड़ी एक तरह से उन्हें जन्मघुटी के रूप में मिली थी, मालवा में उनके खूब भ्रमण हुए, गुजरात से उनके जीवन्त सम्पर्क रहे; और हिन्दुस्तानी से उन दिनों बच पाना किसी के लिए सम्भव था ही नहीं; अतः श्रीमद् प्राचीन भाषाओं के साथ मारवाड़ी, मालवी, गुजराती और हिन्दुस्तानी भी भली-भाँति जानते थे
और अपने प्रवचन बहुधा इनके मिले-जुले भाषारूप में ही दिया करते थे। रोचक है यह जानना कि 'कल्पसूत्र' की बालावबोध टीका मूलतः मारवाड़ी, मालवी, गुजराती
और हिन्दुस्तानी की सम्मिश्रित भाषा-शैली में लिखी गयी थी। जब इसे शा. भीमसिंह माणक को प्रकाशनार्थ सौंपा गया तब इसका यही रूप था; किन्तु पता नहीं किस भाषिक उन्माद में शा. भीमसिंह माणक ने इसे गुजराती में भाषान्तरित कर डाला और उसी रूप में इसे प्रकाशित करवा दिया। उस समय लोग इस तथ्य की गम्भीरता को नहीं जानते थे; किन्तु बाद में उन्हें अत्यधिक क्षोभ हुआ। सुनते हैं कल्पसूत्र' का मूलरूप भी प्रकाशित हुआ था (?) किन्तु या तो वह दुर्लभ है या फिर सम्भवतः वह छपा ही नहीं और शा. भीमसिंह माणक के साथ ही उस पांडुलिपि का अन्त हो गया। टीका के प्रस्तावना-भाग के ११वें पृष्ठ पर, जिसका मूल इस लेख के साथ अन्यत्र छापा जा रहा है, इसके मौलिक और भाषान्तरित रूपों की जानकारी दी गयी है। श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छ के श्रावकों
श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/६७
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