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अमूल्य निधि है, जिसकी समानता आज तक कोई ग्रन्थ नहीं कर सका। भारत ही नहीं, अपितु सुदूर विदेशों में भी जिस 'अभिधान राजेन्द्र कोश' की प्रशंसा की जाती रही हो, वस्तुतः वह ग्रन्थ अपूर्व एवं महतो महीयान ही कहा जा सकता है. इसमें सन्देह नहीं ।
आचार्यप्रवर ने इस ग्रन्थराज की रचना का शुभारम्भ सियाणा (राजस्थान) में वि. संवत १९४६ आश्वित श. द्वितीय के दिन शुभ मुहूर्त में किया एवं सूरत (गुजरात) में वि. सं. १९६० चैत्र शु. त्रयोदशी के दिन इसकी समाप्ति की। इस प्रकार अनवरत साढे चौदह वर्षों तक आचार्यश्री ने साहित्यिक साधना करते हुए विश्व के सम्मुख इस ग्रन्थराज को प्रस्तुत करने में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की। सूरिप्रवर का यह ग्रन्थरत्न विशाल सात भागों में विभक्त है, इसमें अकारानुक्रम से जैनागमों की अर्धमागधी भाषा के शब्दों का इस रूप में संकलन किया गया है कि प्रत्येक शब्द के साथ उसका संस्कृत में अनुवाद, लिङ्ग, व्यत्पत्ति, अर्थ तथा मल सूत्रों में आये हए तत्तत शब्दों का सूत्रानुसार विशद विवेचना आदि समस्त सन्दर्भो की जानकारी इस प्रकार दी गयी है कि केवल एक शब्द के देखने मात्र से प्रत्येक आगम एवं सूत्र में आये हुए उस शब्द से सम्बन्धित समस्त विषयों का सन्दर्भसहित ज्ञान सुविधापूर्वक हो सकता है।
इस प्रकार श्री राजेन्द्रसूरि द्वारा रचित यह 'कोश' विश्वसाहित्य की अनुपम निधि के रूप में सिद्ध हुआ है। यह महाकोश भारत के प्रायः समस्त विश्वविद्यालयों एवं सुप्रसिद्ध समृद्ध पुस्तकालयों की शोभा बढ़ाते हुए जहाँ एक ओर विद्वज्जनों, शास्त्रानुसन्धानकर्ताओं एवं जिज्ञासुजनों की शंकाओं का समाधान करता है, वहीं लुप्तप्राय अर्धमागधी भाषा को पुनरुज्जीवित करने के साथ ही उसकी अमरता भी सिद्ध करता है।
यही कारण है कि भारतीय विद्वानों के साथ ही विदेशों के कई लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों ने भी मुक्त कण्ठ के इस ग्रन्थराज की प्रशंसा की है।
इस ग्रन्थराज 'अभिधान राजेन्द्र' के अतिरिक्त (सात भागों में विभक्त जिसकी पृष्ठ संख्या दस हजार से भी अधिक है) आचार्य श्री ने 'पाइय सद्दम्बुही' (प्राकृत शब्दाम्बुधि), प्राकृत व्याकरण, कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी, कल्पसूत्रबालावबोध, प्राकृत शब्द' रूपावली, श्रीतत्वविवेक, प्रश्नोत्तर पुष्पवाटिका, कमल-प्रभासूर्योदय, त्रैलोक्य दीपिका यन्त्रावली, षड्द्रव्यविचार आदि प्राकृत-संस्कृत के ६१ ग्रन्थों की रचना कर साहित्यश्री को अधिक समृद्ध किया है। इन ग्रन्थों में से २६ ग्रन्थ अभी भी अप्रकाशित हैं। अपेक्षा है कि आचार्यश्री के इन समस्त अप्रकाशित ग्रन्थों का क्रमशः प्रकाशन किया जाए, जिससे विद्वज्जनों के साथ ही उनके माध्यम से सर्वसाधारण को उनका लाभ मिल सके ।
श्रीमद् राजेन्द्रसूरि की पट्ट-परम्परा में वर्तमानाचार्य श्रीमद् विजयविद्याचन्द्रसूरीश्वरजी साहित्य के प्रति विशिष्ट रुचि रखते हुए रससिद्ध साहित्यकार एवं कवि हैं। आपने पार्श्वनाथ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ आदि काव्यों की रचनाएँ की हैं एवं अभी भी इस साहित्यिक अध्यवसाय में आप संलग्न हैं। आशा है आपसे कि आपके तत्वावधान में आचार्य श्रीराजेन्द्रसूरि के अप्रकाशित ग्रन्थों का शीघ्र ही प्रकाशन हो। 0
तीर्थंकर : जून १९७५/१०२
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