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हो जाए, इस दृष्टि से जो भी कथाएं उपलब्ध हुई हैं, वे भी उसी स्थान पर संगृहीत कर दी गयी हैं, जिससे विषय की पुष्टि में सरलता का अनुभव हो जाए ।
इतिहासकारों तथा पुरातत्त्ववेत्ताओं के लिए प्राचीन एवं प्रसिद्ध तीर्थों का वर्णन भी उन्हीं शब्दों के साथ परिचय रूप में करा दिया गया है और उनके सम्पूर्ण इतिहास पर प्रकाश डाला गया है । तीर्थंकर भगवन्तों के पावन जीवन पर भी विशेष विवरण दिया है; उनको जिस भाव में सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई है, अब तक के तमाम भावों पर भी सुन्दर विवेचन किया गया है । सैकड़ों कथाओं को भी संकलित किया गया है ।
'कोश' अकारान्त क्रम में अग्रसर होता हुआ सात भागों में सम्पन्न हुआ है; प्रत्येक भाग की अपनी विशेषता और महत्ता है । इनमें जिन-जिन शब्दों पर जो-जो कथाएँ आयी हैं, उनका सुबोध शैली में विवेचन किया गया है । इस प्रकार इसमें धार्मिक, दार्शनिक और सिद्धान्त संबंधी किसी भी विषय की जानकारी प्राप्त करना हो, वह सब एक ही स्थान पर आसानी से मिल जाती है ।
'अfभाधान - राजेन्द्र-कोश' के इन सातों भागों को जब हम एक साथ देखते हैं तो सहज ही आश्चर्यचकित रह जाते हैं और श्रीमद् राजेन्द्रसूरि की असाधारण प्रतिभा के समक्ष नतमस्तक हो जाते हैं । उनकी अभिलाषा थी कि यह 'कोश' उनके सम्मुख मुद्रित होकर संसार के विद्वानों के सामने प्रस्थापित हो जाए, किन्तु उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी । उस जमाने में मुद्रण की इतनी विशद और द्रुतगामी व्यवस्था नहीं थी, हैण्ड- प्रेस, जो आज प्रूफ निकालने के काम आता है. उस हैण्ड- प्रेस पर इस 'अभिधान राजेन्द्र-कोश' का मुद्रण-कार्य आज से ६० वर्ष पूर्व हुआ था । वे तो 'कोश' का एक प्रथम प्रूफ ही देख पाये थे ।
" शब्द एक नाना अरथ, मोतिन कैसो दाम । जो नर करिहैं कण्ठ सो, तँ हैं छबि के धाम ||
तीर्थंकर : जून १९७५/९६
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- अनेकार्थ तिलक
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