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राजेन्द्रसूरि जीवन-वृत्त
जन्म
३ दिसम्बर १८२७ दिवंगति
२१ दिसम्बर १९०६
श्रीमद विजय राजे
जैनाचार्य -
दरीश्वरजी महाराज गुरवे -
१८२७ जन्म : ३ दिसम्बर, भरतपुर (राजस्थान ) ; पिता : श्री ऋषभदास पारख, माता : श्रीमती केसरीबाई; ज्येष्ठ भ्राता : श्री माणिकचन्द ; छोटी बहिन : श्री प्रेमाबाई; नाम - संस्कार : रत्नराज ।
१८२८-३७ लौकिक शिक्षा, अधिक विचक्षण होने के कारण तनिक लीक से हटकर और शीघ्र; मातृ-पितृ-भक्ति, नित्य कर्त्तव्य-कर्म, चित्तवृत्ति सहज वैराग्य की ओर ; स्वाध्याय में प्रगाढ़ अनुराग ।
१८३८-४१ अग्रज माणिकचन्द के साथ श्री केशरियाजी की तीर्थयात्रा, अन्य जैन तीर्थों की वन्दना ।
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१८४२-४४ अग्रज के साथ व्यापार के लिए बंगाल - प्रवास, कुछ समय बाद सिंहलद्वीप ( श्रीलंका), द्रव्योपार्जन, कलकत्ता आदि महानगरों को देखते हुए घर-वापसी, माता-पिता की वृद्धावस्था में तथा उनके अन्तिम दिनों में भक्तिभावपूर्वक सेवा-शुश्रूषा, माता-पिता के देहावसान के उपरान्त धर्मध्यान में प्रवृत्त । १८४५-४७ भरतपुर में श्री प्रमोदसूरि का आगमन, उनके प्रवचनों से वैराग्य की विवृति,
उदयपुर (राजस्थान) में श्री हेमविजयी से यति-दीक्षा; दीक्षोपरान्त 'रत्नराज' से 'रत्नविजय', श्री प्रमोदसूरिजी के साथ अकोला ( बरार ) में वर्षावास ; शेषकाल में विहार और अध्ययन |
१८४८ प्रमोदसूरिजी के साथ इन्दौर में वर्षायोग |
१८४९ उज्जैन में वर्षावास ; खरतरगच्छीय यति श्रीसागरचन्द्रजी के सान्निध्य में व्याकरण, न्याय, कोश, काव्य, अलंकार इत्यादि का विशेष अभ्यास; स्वल्पकाल में व्याकरण आदि में निष्णात ।
श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक | ३५
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