Book Title: Terapanth Maryada Aur Vyavastha Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Madhukarmuni Publisher: Jain Vishva BharatiPage 15
________________ संलेखणा (अंत समय की तपस्या) करने की भी प्रेरणा न दे। विहार के समय उसका वजन ले तथा अन्य अपेक्षाओं को पूरा करे ताकि किसी भी स्थिति में साधुत्व के प्रति उसके परिणामों में उच्चावच भाव न आए। ढाळ ६,७-छठी ढाळ में ४४ पद हैं। इसकी सं० १८१४ कार्तिक शुक्ला १४ बीदासर में हुई है। ७ वीं ढाळ में ३५ पद्य हैं, इसकी रचना १९१४ पोष शुक्ला ४ को चूरू में हुई है। दोनों ढाळों में सं० १८५० मा. कृ. १० के दिन साधुओं के लिये किए गए लिखित का अनुवाद है। ढाळ ८ से ११-८ वीं ढाळ से ११ वीं ढाळ की रचना सं. १९१४ में क्रमशः चैत्र कृष्णा ६, बैसाख कृष्णा ३, बै. कृष्णा ४ तथा बै. कृष्णा ७ के दिन सुजानगढ़ में हुई। इनमें साध्वियों के लिये सं. १८५२ का. कृ. १४ के दिन बनाए गए लिखित का अनुवाद है। इसमें साधुत्व के प्रति आस्था, पारस्परिक विश्वास, साधु-साध्वियों के गांव में रहने की स्थिति में व्यवस्था तथा ढीठ प्रकृति वाली आर्याओं के लिये बनाई गई विशेष मर्यादाओं का विवेचन है। इन ढाळों में क्रमशः १८, १९,२४ और ३६ पद्य हैं। ढाळ १२ से १६-इन पांचों ढाळों में सं० १८५९ में बनाए गए लिखित का अनुवाद है। इनका रचना-काल, स्थान तथा पद्य संख्या इस प्रकार है : १२- १९१४ बै० कृ० १० सुजानगढ़। पद्य-१४ १३ बै० कृ० १४ " । पद्य-१७ १४ पद्य-१३ १५ बै० शु० ४ लाडनूं । पद्य-२२ १६ जेठ कृ० ८ " । पद्य-३७ मा० शु० ६ रतनगढ़ । पद्य-३५ इसमें आचार्य श्री भिक्षु द्वारा सं० १८२९ फा० शु० १२ 'बूसी' गांव में मुनि अखेरामजी (लोहावट) के लिए व्यक्तिगत रूप में किए गए लिखित का अनुवाद है। मुनि अखेरामजी दीक्षित होने के कुछ वर्षों बाद कई कारणों से संघ से अलग हो १. कारणिक जाणो, आख्यादिक गरढ़ गिलाणो, जद और साध अगिलाणो। वियावच करणी हित ल्याई।। उण नैं संलेखणा केरी, ताकीदी नहिं देणी छै निज तन मन नै धैरी। वधै वेरागो, करणो तिण रीत सुमागो, अति आणी हरख अथागो।। वियावच करणी हित ल्याई।। रोगियो होवै तो तायो, उण रो बोझ उपाड़णो उणरा चढ़ता परिणामों। रहे ज्यूं करणो, उण में जाणो सुध चरणो, तसु छेह दे ना परहरणो।। पवर ए रीत सुगण भाई॥ ढाळ ४, गा०२,३,४Page Navigation
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