Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 03
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 13
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 28 मतिज्ञान आदि पर्याय हैं। इसमें ज्ञान का लक्षण जानना है और दर्शन का लक्षण देखना है। यह इनका लक्षण भिन्न-भिन्न है तथा इनकी संज्ञा (नाम) आदि भी भिन्न-भिन्न है। ज्ञान का प्रयोजन स्व-पर प्रकाशत्व है और दर्शन का अन्त:चित्प्रकाशत्व है, आदि। द्रव्य का लक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक है। क्योंकि वस्तु का स्वरूप त्रयात्मक है। जैन शास्त्र में वस्तु को त्रयात्मक कहते हैं, यह तो ठीक ही है परन्तु हमारे अनुभव में भी वस्तु का त्रयात्मक रूप आता है। क्योंकि त्रयात्मक वस्तु के बिना कोई भी अर्थक्रिया नहीं हो सकती। द्रव्य, गुण और पर्याय ये तीनों ही सत्स्वरूप हैं और तीनों ही उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक हैं। जैसे मिट्टी पुद्गल द्रव्य की पर्याय है। उसमें हमने गेहूँ का एक बीज बोया। उस बीज का संयोग पाकर मिट्टी के कण गेहूँ के अंकुर रूप से उत्पन्न हो गये। उसमें जो मिट्टी रूप पर्याय थी वह तो नष्ट हो गई अर्थात् उसका व्यय हो गया और गेहूँ अंकुर रूप से उत्पन्न होगये तथा स्पर्श, रस, गंध और वर्णात्मक पुद्गल ध्रौव्य रूप रहा। गेहूँ के अंकुर गेहूँ के वृक्ष रूप एवं गेहूँ रूप से परिणत हुए तो अंकुर रूप से व्यय और गेहूँ रूपसे उत्पाद हुआ परन्तु पुद्गलात्मक वस्तु न नष्ट हुई और न उत्पन्न हुई अपितु ध्रौव्य रूप है क्योंकि सत्स्वरूप का नांश नहीं होता और न असत् का उत्पाद होता है। इस प्रकार कुन्दकुन्दादि आचार्यों ने अनेक दृष्टान्तों और युक्तियों के द्वारा वस्तु के स्वरूप का कथन किया है। उन्हीं आचार्यों का अनुसरण करते हुए पूज्यपाद, समन्तभद्र, अकलंकदेव आदि ने अनेक ग्रन्थ रचे। इसी शृंखला में विद्यानन्दाचार्य हुए हैं। अकलंकदेव के पश्चात् उनके चार प्रमुख टीकाकार हुए हैं। उनमें भी प्रमुख हैं आचार्य विद्यानन्द। उन्होंने अकलंकदेव की गूढार्थ अष्टशती को आत्मसात् करते हुए उसकी व्याख्या के रूप में जो अष्टसहस्री रची, वह भारतीय दर्शनशास्त्र के मुकुटमणि ग्रन्थों में से एक है। उसकी पाण्डित्यपूर्ण तार्किक शैली, प्रमेयबहुलता और प्राञ्जल भाषा विद्वन्मनोमुग्धकारी है। अकलंकदेव की गूढार्थ पंक्तियों के अभिप्राय को यथार्थ रूप से उद्घाटित करने में विद्यानन्दाचार्य की प्रतिभा का चमत्कार अपूर्व है। ये भी भट्ट अकलंक के समान षड्दर्शनों के पण्डित थे। आचार्य विद्यानन्द के छह ग्रन्थ उपलब्ध हैं - तत्त्वार्थ श्लोकवार्त्तिकालंकार, अष्टसहस्री, प्रमाणपरीक्षा, आप्तपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा और पत्रपरीक्षा। एक ग्रन्थ विद्यानन्द महोदय उपलब्ध नहीं है। जैसे समन्त भद्राचार्य का गन्धहस्ति महाभाष्य और कुन्दकुन्द की षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्डों पर लिखित 12000 श्लोक प्रमाण परिकर्म नामकी टीका उपलब्ध नहीं हैं। पहले शास्त्रार्थों में जो पत्र दिये जाते थे उनमें क्रियापद आदि गूढ रहते थे अत: उनका आशय समझना बहुत कठिन होता था। उसी के विवेचन के लिए विद्यानन्दाचार्य ने पत्रपरीक्षा नामक एक छोटे से प्रकरण की रचना की थी। जैन परम्परा में इस विषय की सम्भवतया यह प्रथम और अन्तिम स्वतन्त्र रचना है। विद्यानन्दाचार्य ने समन्तभद्र के 'युक्त्यनुशासन' पर भी टीका रची है। अकलंकदेवाचार्य न्याय के प्रस्थापक थे तो विद्यानन्द उसके सम्पोषक और संवर्धक थे।

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