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अ० १० भावभिक्खुगई] सुत्तागमे
९७३ यावि गच्छे, वंतं नो पडिआयइ जे स भिक्खू ॥ १ ॥ पुढविं न खणे न खणावए, सीओदगं न पिए न पियावए । अगणिसत्थं जहा सुनिसियं, तं न जले न जलावए जे स भिक्खू ॥२॥ अनिलेण न वीए न वीयावए, हरियाणि न छिंदे न छिंदावए। बीयाणि सया विवजयंतो, सचित्तं नाहारए जे स भिक्खू ॥ ३॥ वहणं तसथावराण होइ, पुढवीतणकट्ठनिस्सियाणं । तम्हा उद्देसियं न भुंजे, नो वि पए न पयावए जे स भिक्खू ॥ ४ ॥ रोइयनायपुत्तवयणे, अप्पसमे मन्निज छप्पि काए। पंच य फासे महव्वयाई, पंचासवसंवरे जे स भिक्खू ॥५॥ चत्तारि वमे सया कसाए, धुवजोगी य हविज बुद्धवयणे । अहणे निजायरूवरयए, गिहिजोगं परिवज्जए जे स भिक्खू ॥ ६ ॥ सम्मदिट्ठी सया अमूढे, “अस्थि हु नाणे तवे संजमे य" । तवसा धुणइ पुराणपावगं, मणवयकायसुसंवुडे जे स भिक्खू ॥ ७ ॥ तहेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइमसाइमं लभित्ता । "होही अट्ठो सुए परे वा," तं न निहे न निहावए जे स भिक्खू ॥ ८॥ तहेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइमसाइमं लभित्ता । छंदिय साहम्मियाण मुंजे, भोच्चा सज्झायरए जे स भिक्खू ॥ ९॥ न य वुग्गहियं कहं कहिज्जा, न य कुप्पे निहुइंदिए पसंते। संजमधुवजोगजुत्ते, उवसंते अविहेडए जे स भिक्खू ॥ १० ॥ जो सहइ हु गामकंटए, अक्कोसपहारतज्जणाओ य । भयभेरवसद्दसप्पहासे, समसुहदुक्खसहे य जे स भिक्खू ॥११॥ पडिमं पडिवजिया मसाणे, नो भीयए भयभेरवाई दिस्स । विविहगुणतवोरए य निच्चं, न सरीरं चाभिकंखए जे स भिक्खू ॥ १२ ॥ असई वोसट्टचत्तदेहे, अकुढे व हए व लूसिए वा । पुढविसमे मुणी हविज्जा, अनियाणे अकोउहल्ले जे स भिक्खू ॥ १३ ॥ अभिभूय काएण परीसहाई, समुद्धरे जाइपहार अप्पयं । विइत्तु जाईमरणं महब्भयं, तवे रए सामणिए जे स भिक्खू ॥ १४ ॥ हत्थसंजए पायसंजए, वायसंजए संजइंदिए । अज्झप्परए सुसमाहियप्पा, सुत्तत्थं च वियाणइ जे स भिक्खू ॥ १५॥ उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्धे, अन्नायउच्छं पुलनिप्पुलाए । कयविक्कयसन्निहिओ विरए, सव्वसंगावगए य जेस भिक्खू ॥ १६॥ अलोल भिक्खू न रसेसु गिज्झे, उंछं चरे जीविय नाभिकंखे । इड्डिं च सकारणपूयणं च, चए ठियप्पा अणिहे जे स भिक्खू ॥ १७ ॥ न परं वइजासि "अयं कुसीले', जेणं च कुप्पिज न तं वइजा । जाणिय पत्तेयं पुण्णपावं, अत्ताणं न समुक्कसे जे स भिक्खू ॥ १८ ॥ न जाइमत्ते न य रूवमत्ते, न लाभमत्ते न सुएण मत्ते। मयाणि सव्वाणि विवजइत्ता, धम्मज्झाणरए जे स भिक्खू ॥ १९॥ पवेयए अजपयं महामुणी, धम्मे ठिओ ठावयई परं पि। निक्खम्म वजिज कुसीललिंगं, न यावि हासं कुहए जे स भिक्खू ॥ २० ॥ तं देहवासं असुइं असासयं,