Book Title: Sramana 1998 01
Author(s): Ashokkumar Singh, Shivprasad, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
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अंगविज्जा और नमस्कार मन्त्र की विकास यात्रा हो चुका है कि 'नमो' पद का प्रयोग ही प्राचीन है और उसके स्थान पर ‘णमो' पद का प्रयोग परवर्ती है। वस्तुत: शौरसेनी प्राकृत और महाराष्ट्री प्राकृत के व्याकरण के 'नो णः' सूत्र के आधार पर परवर्ती काल में दन्त्य 'न' के स्थान पर मूर्धन्य 'ण' का प्रयोग होने लगा। इस सम्बन्ध में अंगविज्जा की क्या स्थिति है? यह भी जानना आवश्यक है। मुनि श्री पुण्यविजय जी ने अपने द्वारा सम्पादित अंगविज्जा में नमस्कारमन्त्र के प्रसङ्ग में 'नमो' के स्थान पर ‘णमो' का ही प्रयोग किया है। किन्त मूल में ‘णमो' शब्द का प्रयोग स्वीकार करने पर हमें अंगविज्जा की भाषा की प्राचीनता पर सन्देहं उत्पन्न हो सकता है। क्योंकि प्राचीन अर्धमागधी में सामान्यतः 'नमो' शब्द का प्रयोग हुआ है। इस सन्दर्भ में मैंने मुनि श्री पुण्यविजय जी के सम्पादन में आधारभूत रही हस्तप्रतों के चित्रों का अवलोकन किया। यद्यपि उनके द्वारा प्रयुक्त हस्तप्रतों में 'नमो' और 'णमो' दोनों ही रूप उपलब्ध होते हैं। जहाँ कागज की दो हस्तप्रतों में 'नमो' पाठ है, वहाँ कागज एक हस्तप्रत में ‘णमो' पाठ है। इसी प्रकार सम्पादन में प्रयुक्त ताडपत्रीय दो प्रतों में से जैसलमेर की प्रति (१४वीं शती) में 'नमो' पाठ है। लेकिन परवर्ती खम्भात में लिखी गई (१५वीं शती के उत्तरार्ध १४८९ में लिखी गई निजी संग्रह) प्रति में ‘णमो' पाठ है। मात्र यही नहीं कागज की उनके स्व संग्रह की जिस प्रति में ‘णमो' पाठ मिला है उसमें भी प्रथम चार पदों में ही 'णमो' पाठ है। पञ्चम पद में 'नमो' पाठ ही है। यही नहीं आगे लब्धिपदों के साथ भी 'नमो' पाठ है। होना तो यह था कि सम्पादन करते समय उन्हें 'नमो' यह प्राचीन प्रतियों का पाठ लेना चाहिए था किन्तु ऐसा लगता है कि मुनि श्री ने भी हेमचन्द्र-व्याकरण के 'नो णः' सूत्र को आधार मानकर 'नमो' के स्थान पर ‘णमो' को ही व्याकरण सम्मत स्वीकार किया है। आश्चर्य है कि मुनिश्री ने अंगविज्जा की प्रस्तावना में ग्रंथ की भाषा और जैन प्राकृत के विविध प्रयोगं शीर्षक के अन्तर्गत महाराष्ट्री प्राकृत से जैन प्राकृत (अर्धमागधी) के अन्तर की लगभग चार पृष्ठों में विस्तृत चर्चा की है और विविध व्यञ्जनों के विकार, अविकार और आगम को समझाया भी है फिर भी उसमें 'न' और 'ण' के सम्बन्ध में कोई चर्चा नहीं की है। सम्भवतः उन्होंने 'ण' के प्रयोग को ही उपयुक्त मान लिया था। किन्तु मेरा विद्वानों से अनुरोध है कि उन्हें अभिलेखों और प्राचीन हस्तप्रतों में उपलब्ध 'नमो' पाठ को अधिक उपयुक्त मानना चाहिए। वस्तुत: मुनि श्री पुण्यविजय जी ने जिस काल में अंगविज्जा के सम्पादन का दुरूह कार्य पूर्ण किया, उस समय तक 'न' और 'ण' में कौन प्राचीन है यह चर्चा प्रारम्भ ही नहीं हुई थी। मेरी जानकारी में इस चर्चा का प्रारम्भ आदरणीय डॉ० के० आर० चन्द्रा के प्रयत्नों से हुआ है, अत: भविष्य में जब कभी इसका पुनः सम्पादन, अनुवाद और प्रकाशन हो तब इन तथ्यों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। वस्तुतः महान अध्यवसायी और पुरुषार्थी मुनि श्री पुण्यविजय जी के श्रम का ही यह फल है कि आज हमें अंगविज्जा जैसा दुर्लभ ग्रन्थ अध्ययन के लिए उपलब्ध