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(१५७) उ नाम कुल उत्तम, गुन संपति आनंद निवास ॥ उन्नत विनौ सुगम नव सागर, तीन नुवन महिमा परगास ॥ जुज बलवंत अनंतरूप बवि, रोगरहित नित जोग विलास ॥ जिनके चित्त दया तिन्हके रुख, सब सुख होत बनारसि दास ॥२७॥ __ कथाः-एज जरतक्षेत्रमा गजपुरनगरें सुनंद एवे नामें कुलपुत्र रहे . तिहां धर्मवंत प्राणी जिनदासनी साथें तेने महा प्रीति जे. एकदा ते बेहु मित्र वनमां गया, तिहां सुराचार्य समान धर्माचार्यने देखी नमस्कार कस्यो, तेणें दयामूल धर्मनो उपदेश दीधो, ते उपदेश सांजली गुरुने कर्दा के हु मांसजहणपञ्चरकाण तो करूं पण माहाराथी महारो कुलाचार केम मूकाशे ? गुरुये कह्यु के धर्माचार खरो समजवो. धर्मनी वेलायें कांश बालंबन न करवं. ते सांजली सुनंदें तरत जीवदयाव्रत आदमु. मांसजदणनो नियम लीधो, सर्व जीव पोताना श्रास्मा सरखा जाणतो तो सुखें व्रत पाले बे. एम करतां घणो काल थयो. एकदा पुर्निद पड्यु, सर्वत्र धान्य मोघु थयु. ते अवसरें सुनंदनी स्त्री कहेवा लागी के हे स्वामी ! स्वकुटुंब पालवा माटें