Book Title: Sindur Prakar
Author(s):
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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( ३५५ ) जयरहितोजव जवाजवइति पाठे जवर हितोजव ॥ ८९॥णा जाषाकाव्यः - सवैय्या इकतीसा ॥ अशुभता धुलि दरवेकों नीरपुर सम, विमल विरति कुलवधुको सोहाग है ॥ उदित मदनज्वर नाशवेकों ज्वरांकुश, अक्षगजथंजनकों अंकुशको दाग है ॥ चंचल कुमन कपि रोकवेकों लोहफंद, कुसल कुसुम उपजा - यवेकों बाग है ॥ सुधो मोख मारग चलाय वेकों नामी रथ, ऐसो हितकर नवजंजन विराग है ॥८॥ वली पण वैराग्यज कहे बे. वसंततिलकावृत्तम्॥ चंडानिलस्फुरितमब्दचयं दवा, वृक्षव्रजं तिमिरमंडल मर्कबिंबम् ॥ वज्रं महीघ्रनिवहं नयते यथांतम्, वैराग्यमेकमपि कर्म तथा समग्रम् ॥ ९० ॥
अर्थः- ( यथा के० ) जेम ( चंडानिल के० ) प्रचंड एवो अनिल जे वायु तेनुं ( स्फुरितं के० ) स्फुरण एटले चालवं ते ( श्रब्दचयं के० ) मेघघ - टाने ( तं के० ) अंतप्रत्यें ( नयते के० ) पमाडे बे. वली जेम ( दवार्चिः के० ) दावाग्निनी ज्वाला, ( वृत्रजं के० ) वृना समूहने नाश प्रमाडे बे.

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