Book Title: Sindur Prakar
Author(s): 
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 382
________________ (३०) मुकुट शिर उप्पर, सुगुरु वचन कुंमलयुग कान ॥ अंतरशत्रु विजय जुजमंमन, मुगति माल उर गुन अमलान ॥ त्याग सहज कर कटक विराजत, शो. जित सत्य सबद मुख पान ॥ नूखन तजहिं तहूं तन मंमित, यातें संत पुरुष परधान ॥ ए॥ नवारण्यं मुक्त्वा यदि जिगमिषुर्मुक्तिनगरीम, तदानीमा कार्षीविषयविषटदेषु वसतिम् ॥ यतश्गयाप्पेषां प्रथयति महामोहमचिरा, दयं जंतुर्यस्मात्पदमपि न गंतुं प्रनवति ॥ एG ॥ति सामान्योपदेशप्रक्रमः ॥२३॥ अर्थः-हे श्रावकजन ! ( यदि के०) जो (जवारण्यं के०) संसाररूप अटवीने (मुक्त्वा के०) मूकीने ( मुक्तिनगरी के०) मोदनगरी प्रत्ये (जिगमिषुः के) जवाने तो एवो तुं बगे, (तदानीं के ) त्यारें तो ( विषयविषवृकेषु के ) विषयरूप जे विषवृतो तेने विषे ( वसतिं के) निवासने (माकार्षीः के०) म कर. (यतः के०) जेकारण माटें ( एषां के०) ए विषयविषवृदोनी (गयापि

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