Book Title: Sindur Prakar
Author(s):
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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(३७५) उदयाधिरुदयाचलः तत्र घुमणिः सूर्यसमानोविजयसिंदाचार्यस्तस्य पादारविंदे चरणकमले मधुकरसमतां भ्रमरतुल्यतां अनजत्प्राप । अर्थात् पूर्वमजितदेवाचार्यस्तस्य सोमप्रजाचार्यस्तेनेयं सिंदूरप्रकरनामा सूक्तमुक्तावली व्यरचि कृता ॥ १० ॥ इति प्रशस्तिः ॥ इति श्रीसिंदूरप्रकराख्यग्रंथस्य हर्षकीर्तिसूरिविरचिता व्याख्या समाप्ता ॥
लाषाकाव्यः-सवैय्या इकतीसा ॥ गहैं जे सुजनरीति, गुनीसों निवाद प्रीति, सेवा साधै गुरुकी, विनैसों कर जोरिकें ॥ विद्याको विसन धरै, परतिय संगहरै, उर्जनकी संगतिसों, बैठे मुख मोरिके ॥ तजै लोक निंधकाज, पूजै देव जिनराज, करै जे करणि थिर, उमंग बहोरिकें तेही जीव सुखी होहिं, तेहि, मोखमुखी हो हिं, तेही होइ परम, करमफंद तोरिकें ॥ ए॥
वृत्त ऊपर प्रमाणे ॥ पर निंदा त्याग करु, मनमें वैराग धरु, क्रोध मान माया लोन, च्यारो परिहर रे ॥ हिरदेमें तोष गहु, समतासों शीरो रहु, धरमको नेद लहु, खेदमें न पर रे ॥ करमको वंस खोज, मुगतिको पंथ जोउ सुकृतको बीज बोउ,

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