Book Title: Sindur Prakar
Author(s):
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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( ३७६ )
जाषाकाव्यः - वस्तुच्छंद ॥ देव पूजहिं देव पूजहिं रचहिं गुरु सेव ॥ परमागम रुचि धरहिं, तंजहिं दुष्ट संगति ततछन ॥ गुनिसंगति यादरहिं, करहिं त्याग डुरजब जवन ॥ देहि सुपत्तहिं दान नित, जपहिं पंच नवकार | ए करनी जे श्राचरहिं, ते पावहिं जवपार ॥ ५ ॥ दरिणीवृत्तम् ॥ प्रसरति यथा किर्त्तिर्दिदु क्षपाकरसोदरा, ऽभ्युदयजननी याति स्फातिं यथा गुणसंततिः ॥ कलयति यथा टझिं धर्मः कुकर्मदतिक्रमः, कुशल- सुखने न्याये कार्य तथा पथि वर्त्तनम् ॥ ९६ ॥
अर्थः- हे प्राणी ! ( न्याये के० ) न्यायोपपन्न एवा (पथि के० ) मार्गने विषे ( तथा के० ) तेवी रीतें ( वर्त्तनं के० ) वर्त्तन ( कार्य के० ) करवा योग्य बे. केवी रीते ? तो के ( यथा के० ) जेम ( दिक्षु के० ) चारे दिशामां ( कृपाकरसोदरा के० ) चंद्रकिरणसमान उज्ज्वल एवी ( कीर्त्तिः के० ) की - ति ( प्रसरति के० ) प्रसरे बे. वली ( यथा के० ) जेम (ज्युदयजननी के० ) उदयने करनारी एवी

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