Book Title: Sindur Prakar
Author(s): 
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 355
________________ (३५३) तपस्तीनं तप्तं चरणमपि चीर्णं चिरतरं, न चेञ्चित्ते नावस्तुषवपनवत् सर्वमफलम् ॥ हवे वैराग्यने कहे जे. हरिणीटत्तम् ॥ यदशुनरजःपाथोहप्तेज्यिघिरदांकुशम्, कुशलकुसुमोद्यानं माद्यन्मनः कपिशृंखला ॥ विरतिरमणीलीलावेश्म स्मरज्वरनेषजम्, शिवपथरथस्तरैराग्यं विमृश्य नवाऽनयः (नवाऽनवः)॥नए॥ अर्थः-हे मुनि ! ( तत् के) ते (वैराग्यं के०) वैराग्यने ( विमृश्य के ) विचारीने (अजयः के०) संसार जयरहित (नव के०) था. ते कयो वैराग्य? तो के ( यत् के०) जे वैराग्य (अशुजरजः के०) पापरूप जे रज तेनेविषे ( पाथः के० ) जलरूप ले. तथा (हप्तेंजियहिरदांकुशं के० ) मदोन्मत्त एवी जे इंजियो तेरूप जे हाथीयो, तेमने विषे अंकुश समान अ. वली (कुशलकुसुमोद्यानं के०) कुशलतारूप जे फूल तेमनो उद्यान एटले वनरूप . वली ते वैराग्य (माद्यन्मनःकपिशृखला के० ) मदोन्मत्त एवं जे मन ते रूप जे वांदर, तेने बांधवामां सां २३

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