Book Title: Sindur Prakar
Author(s): 
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 353
________________ (३५१) ज्यस्तं के०) जएयु, तथा (चं के) नयंकर एवु ( क्रियाकांड के० ) क्रियाकांम ते लोचादि (रचितं के ) कयु. तथा ( असकृत् के०) वारंवार (अवनौ के०) पृथ्वीने विषे ( सुप्तं के ) शयन कमु तथा ( तीव्र के० ) तीव्र एवं (तपः के०) बार प्रकार- जे तप तेने ( तप्तं के० ) तप्यु, तथा (चरणमपि के) चारित्र पण ( चिरतरं के० ) घणाककालपर्यंत (चीर्ण के० ) सेवन कयुं. परंतु (चिते के०) चित्तने विषे ( जावः के०) शुजनाव, (नचेत् के० ) जो न होय तो ( सर्वं के०) पूर्वोक्त सर्व (तुषवपनवत् के० ) तुष जे फोतरां तेने खांमवानी पेठे (अफलं के) निष्फल जाणवू ॥७॥ अहिं जावना जाववा विषे मरुदेवी माता, जरत महाराज, एलायचीपुत्र तथा प्रसन्नचंजराजर्षि, तेनी कथाउनो दृष्टांत लेवो ॥ ते कथा सर्व प्रसिद्ध २ ॥ इति नावनाप्रक्रमः॥२०॥ ___टीकाः- पुनराह ॥ घनमिति ॥ घनं प्रचुरं वित्तं धनं पात्रेन्योदत्तं पुनर खिलं समस्तं जिनवचनं जिनागमरूपं अन्यस्तं ॥ पहितं । पुनश्चंडं जीमं क्रियाकांडं लोचादि रचितं कृतं । पुनरवनौ जूमौ श्र

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