Book Title: Sindur Prakar
Author(s): 
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 374
________________ (३७२) आगमको रस पीजै ॥ ए करनी करिये गृहमें वसि, यौं जगमें नर नौंफल लीजें ॥ ए३ ॥ शिखरिणीटत्तम् ॥ त्रिसंध्यं देवा! विरचय चयं प्रापययशः,श्रियः पात्रे वापं जनय नयमार्ग नय मनः ॥ स्मरक्रोधाद्यारीन् दलय कलय प्राणिषु दयाम, जिनोक्तं सितिंश्रृणु तणु जवान्मुक्तिकमलाम् ॥४॥ अर्थः-हे जव्यप्राणी ! ( त्रिसंध्यं के० ) प्रनात, मध्यान्ह अने सायंकाल, तेने विषे ( देवार्चा के० ) श्रीवीतरागनी पूजाने (विरचय के०) कर' तथा (यशः के० ) कीर्तिने, (चयं के० ) वृद्धिप्र. ये (प्रापय के ) पमाड. तथा ( श्रियः के० ) बमीना ( पात्रे के०) सुपात्रने विषे ( वापं के) वाववाने ( जनय के० ) उत्पन्न कर. तथा ( मनः के) मनने ( नयमार्ग के०) न्याय मार्ग प्रत्ये (नय के० ) पमाड. वली ( स्मरक्रोधाद्यारीन् के०) काम, क्रोध, मान, माया, लोज, ए श्रादि शत्रुठने (दलय के०) खंमन कर. तथा (प्राणिषु के०) प्राणिमात्रने विषे ( दयां के० ) दयाने ( कलय

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