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(२६६) स्प पर गुन बहु मानहिं ॥ हृदय धरहिं संतोष, दीन लखि करुना छानहि ॥ उचित रीति श्रादरहिं, विमल नय नीति न बंमहिं ॥ निज जसलहन परहरहिं, राम रचि विषय विहंमहिं ॥ मंमहिं न कोप पुर्वचन सुनि, सहज मधुर धुनि उच्चरहिं॥ कहि कवर पाल जग जाल वस, ए चरित्र सजान करहिं ॥६॥
कथा;-सुजनता उपर कथा कहे जे. उजायणी नगरीय विक्रमादित्य राजाने घरे शीलालंकाररूप कमलावती नामें नार्या . एकदा राजा सनामांहे हर्षोत्कर्षे बिराजमान थ सजाना लोकोनें कहेवा लाग्यो के संसारमाहे एवं को ज्ञान प्रवर्त्तमान डे, के जे महारा राज्यने विषे नज होय ? ते सांजली एक कलावंत देशांतरी पुरुष बोल्यो के हे राजा ! तमारा राज्यमां लक्ष्मीवान् विद्यावान्, गुणवान्, एवा अनेक पुरुषो , अने तमें पोते पण लक्ष्मी अने विद्यायें करी सहित बो. तमारी स्त्री सरस्वती सदृश , दातार शिरोमणि , परंतु एक परकाया प्रवेशकारिणी विद्या तमारी पासें नथी. ते सांजली राजा ससंभ्रम थर बोल्यो के ते विद्या क्या ? ते बोल्यो के हे स्वामी ! गिरनार पर्वतनी उपर एक