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गारमंजगे
सोसइ पोस सरीर कि पीउ परदेसि पसरइ विरह सु पनि मित्त गया
वाजइ टाढी, अनीठी रातडी,
गयांइं
हीम कि दाजइ पदमिनी, पर दीपि कि पोडइ यामिनी
पंथी पंथी चिलति कि नदीयां नीर तरंति कि हूउ चंचल चित्त पनि० तस विरहानल
सीयालइ गहिबरिउ, गोरी नेह सांभरिउ, कि बूडु नदीअमां, धूम कि उठइ नीरमां. ११३५
आविउ सखिउ माह कि भोग - रसाकुल, मालति विरहि भमंति कि भमरु दुबलु, जस का पान जिहां होइ कि सो तिहां रति धरइ, पनि जस कूं कोइ न सज्जन तस मन किहां ठरइ. फागुणि वाया वाय कि पान खरियां वनिं, जस मनि सालइ दुखु पीउ की जोउं वाट कि पनि जारे म करि विलंब कि
कि होली तस मनि,
नींद गमाइयां,
जीउ मोकलाइया. ११३७
कि
सुखय संयोगी मांणस सवि रितु सोहामणी, दुखीय विरही जेह कि तीह अलखामणी, सवि ऊकराटा होइ कि जसका दिन फरिया, पनि जस कुं तूठा दैव कि तस दिन पाधराइति पनिहां
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नाभि शील शिशिर पीउ परदेसि गयांइ कधी अगनि अंगीठि
उन्हा हम मनि उतापइ अति तनई, कि शीयालइ बहु नरिं,
पनि० तेणि उन्हा एह कि दाधां भीतरिं. ११३८
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रेलूयडी सूणि वत्तडी, किहां रहिसि बारइ काल, जस हैइ दुख सांभरइ, तस
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दुहा
चमा बुलिया पछी, किहां तूं वरससि मेह, सजन विछोहियां माणसां, तस नयणे मुज गेह. १९४०
सीआला किहां वससि तूं, गयां शीयाला मोस, वाहाला विरह विछोहियां, तस अंगइ मुज बास. ११४१
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नीसासे जाल. ११४२
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