Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 8
________________ प्रापका चातुर्मास सन् १९७७ में पारा (विहार) में हुआ था । उस समय में चन्दा बाईजी के आश्रम में हाईस्कूल में संस्कृत शिक्षिका थी। मेरा उस समय आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत तो था ही। किन्तु अध्ययन-अध्यापन और समाज सेवा का लक्ष्य था, त्याग, वैराग्य वा संयम के प्रति झुकाव नहीं था। आपके चातुर्मास से मुझे बहुत लाभ हुआ, संयम ही जीवन का सार हैं। यह बात समझ में आई। आपके निर्मल ज्ञान, चारित्र, वात्सल्य एवं परमोपकार को भावना को देखकर मैंने यह निश्चय कर लिया कि अब अपना सम्पूर्ण जीवन आपके चरणों में ही व्यतीत करूंगी वस, स्थल में त्यागपत्र देकर मैं संघ में रहने लगी और विद्याध्ययन करतो रही तथा प्राचार्य श्री कुन्दकुन्द की तपोभूमि पोन्नुरमलै (तमिलनाडू) में मैंने और संघस्थ व. संध्याजो ने आप से ४-१०-१४ गुरुवार को क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण करली। रत्नत्रयरूपी महान् विभूति प्रदान करने वाली दीक्षा एवं शिक्षा गुरुपूज्या माताजी के गुणों का वर्णन हमारे लिए प्रशवय है, क्योंकि आपके गुण सागर के समान गम्भीर और आकाश के समान विस्तृत है। पारसमणि लोहे को सोना बनाता है पर पारस रूप नहीं बनाता है किन्तु पूज्या आर्यिका रत्न १०५ गणिनी विजयामती माताजो बह पारसमणि है जो लोहे को सोना ही नहीं किन्तु पारस बना देतो है । मैंने १२ वर्षों के सान्निध्य से यह अनुभव किया कि पूज्या माताजी अपने शिष्यों की तथा दूसरों की उन्नति देखकर सुनकर अत्यधिक प्रसर होती हैं । दीपक जिस प्रकार स्व पर दोनों को प्रकाशित करता है, चन्दन विषधरों के द्वारा इसे जाने पर भी सुमन्धी ही विखेरता है उसी प्रकार पूज्या माताजी का जीवन है। __ निवृत्ति मार्ग में रहकर अापने साहित्य सृजन का भी महान कार्य किया है । आपकी लेखनी से निःसृत अनेक पुस्तके हमारा ज्ञानवर्धन कर रही हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं(१) प्रात्मवैभव (२) आत्मानुभव (३) प्रात्मचिन्तन (४) तजोमान करो ध्यान (५) पुन. मिलन (६) शीतलनाथ पूजा विधान (७) सच्चा कवच (८) महीपाल चरित्र (8) तमिल तीर्थ दर्पण (१०) कन्दकन्द शतक(११प्रथमानयोग दीपिका (१२) अमतवाणी (१३) तत्व दर्शन प्रौर १४ वा ग्रन्थ है यह "श्रीसिद्धचक्रपूजातिशयप्राप्त श्रीपाल चरित्र-" सभी ग्रन्थों में आगमानुकूल प्रतिपादन मिलता है. सर्वत्र प्रामाणिक युक्तियाँ भी मौजूद हैं जो हमारे अन्दर सम्यग्ज्ञान को जागृत करने में पूर्ण सहायक हैं। अधिक क्या लिखूपापका तप: पुनीत जीवन विलक्षण है, आप रत्नत्रय को साकारमूर्ति स्वरूप हैं कितना गौरव कितनी गरिमा सांचे में ढला हो जीवन जैसे चाहे जितनी सीख लो. प्राध्यात्म की खुली किताब हो तुम । किस भांति करू मैं गुरु वन्दना शब्द परिमित और गुण अमित हैं। तव पद मम हिय में रहे सदा बस यही चाहती हैं निशदिन ।। लेखिका-क्ष १०५ जयप्रभा संघस्थ श्री १०५ गणिनी प्रायिकारत्न विजयामती माताजी ।

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