Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 2 3
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 126
________________ १५] [ शास्त्रासमुचय स्त० ३ ० ३ अन्ये तु द्रव्याणि ज्ञानेच्छा- कृतिमन्ति, कार्यवात्, , कपालवत् । साध्यता विशेष्यतया हेतुना समवायेन, पक्षता वल्लेदकावच्छेदेन साध्यसिद्धेरुद्देश्यत्वा नशा पक्ष में ष्ट से मित्र किसने व्यापार के द्वारा समवावि की कृतिजन्यता मान लेने पर प्रर्यान्तर की प्रसक्ति होगी। पत: उस के चारण के लिये साध्य के शरीर में स्वोपादानगोचरत्व का निवेश aratre होगा । अमवावि की कृति णु के उपवास को विषय नहीं करती इसलिये प्रश्र को आपत्ति नहीं हो सकती। इस प्रकार साध्य में स्वोभावानगोचरस्य का संनिवेश आवश्यक हो जाने पर पक्ष में भी उस का निवेश करना आवश्यक होगा। अन्यथा मृदङ्गाविवाम से होने वाले शब्द के द्वारा हेतु में शब्द व्यभिचार की शंका की प्रापत्ति होगी। क्योंकि पक्ष में स्वोपावानांच का निवेश न होने पर उक्त शब्द पक्ष वहित हो जाता है और उस में स्वोपश्वानगोचर स्वजनक मष्ठाजनक कृतिजन्यत्वरूप साध्य का सन्देह होता है। इस के अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि यदि मृषङ्गावि से उत्पन्न होनेवाले शम्यादि कर्त्तारूप में भी परमेश्वर की सिद्धि करनी हो तो उसे पक्षान्तर्गत बनाने के लिये पक्ष में स्वोपायान गोचर का निवेश करना होगा, और उस स्थिति में उसमें स्वोशदान मोचरस्य से अटित साध्य के सिद्ध होते से अंशतः सिद्धसाधन की प्राप्ति होगी, अतः उस के वारणाथ साध्य में भी स्वोपावानगीचरस्य का निवेश आवश्यक होगा । इस प्रसंग से यह सुझाव कि-'स्वजनकाटाजनकत्व का संनिवेषा साध्य और पक्ष दोनों में न किया जाय - उचित नहीं है। क्योंकि काश्यपात्र की उषत गति और कृष्ण शरीर से उत्पन्न होनेवाले उक्त गौर रूप के रूप में भी ईश्वर को सिद्धि करने के लिये पक्ष में कृत्यंश में स्वजनकuttarer का निवेश करना होगा और उस स्थिति में साध्य में भी उस अंश के निवेश की वि aruna अपरिहार्य होगी । पायथा उपल गति पर उक्त रूप में अंशतः सिद्धसाधन की प्रापति होगी। यदि यह कहा जाय कि स्वजनक अष्ट को उत्पन्न करनेवालो कृति स्व का जनक नहीं हो साली है कि उसे स्व का कारण मानने में कोई प्रमाण नहीं है। उस बशा में पक्ष में नक मष्टाजनकत्व के निवेश को मावश्यकता न होगी किन्तु शाक में उस का निवेश करना ही होगा । क्योंकि शाद में उसका निवेश न करने पर पूर्व सर्ग के प्रमवादिके ज्ञानजन्यस्व को लेकर में साधन नहीं हो सकता क्योंकि पूर्व सर्गका अस्मवावि का ज्ञान भी धणुकावि के उपादान को विषय नहीं करता तब भी उक्त काश्यपात्र की गति में श्री कृष्णवारी रगत गौर रूप में प्रर्थान्तरकी आपति हो सकती है यमि उन्हें स्वजनक अष्ट को उत्पन्न करनेवाली कृति से जन्य मान लिया जाय। क्योंfe स्वोपावानगोवर कृतिजन्य जो जो वस्तु हैं वे सभी वस्तुओं का भेवकुट उक्त गति और उगत रूप में विद्यमान है। अतः उक्त गति और उक्त रूप मी पक्षान्तर्गत हो जाते हैं । यह मी अन्य विद्वानों का मत है [व्यपक्षक कार्यवत्ता हेतु अनुमान ] अन्य विज्ञान कार्य में सत्व साधक अनुमन का इस रूप में प्रयोग करते हैं कि-'प कृतिमा होते हैं क्योंकि में कार्यवान होते हैं जैसे कपाल । इस अनुमान में मध्य पक्ष है और

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