Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 2 3
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 237
________________ स्था कीका-हिन्दीविवेचना ] [१२ वस्थापकमेकंशरारमध्यक्षमा संवेधत इत्यस्य विरोधः, पाया-ऽभ्यन्तरविभागामावारिति ये १ सत्यम् , आन्मभिवन्त्राभ्यां य द् - 'ण य बाहिरमो मायो अम्भनरओ अ अस्थि ममयाम्म | णोई दियं पुण पटुच्च होइ अन्तरधिमेमो ॥ [सन्मति ५०] सर्वम्येच मृर्माऽ मृतादिरूपतयाऽनेकान्तात्मकल्यान् 'अयं बाहा, अयं चाभ्यन्नरः' इति समये न बास्तयो विभागः । अभ्यन्तर इति उपपदंशस्तु नोइन्द्रियं मनः प्रतीत्य, नस्याऽऽतम परिणतिरूपस्य पराऽप्रत्यक्षात्यान , शागर-वापोरिष । न च सददेव तम्य प्रत्यक्षस्वाचिः, इन्द्रियज्ञानस्याशेषपदार्थस्वरूपग्राहकल्याऽयोगान् । एवं ष स्याद्वादोक्तिरेव पृचता न तु परस्परनिरपेक्षनपोक्तिबिना श्रोतधीपरिकर्मणानिमितम् , वस्तुनोऽनेकान्सानमफत्वाच । नदाइ { विवत्तों के बाह्याभ्यन्तरविभाग अनुपपत्ति की आशंका ) मेह और आत्मा में अन्योन्यानुवैध मानने पर यह शहका हो सकती है in..'हवं विषावाद अनेक आभ्यस्तर विषों से अभिन्न एक तम्य है, और पास्य-कोपार्य, पौवनावि अनेकवियावस्थानों से अभिन्न एक वारीर है यह जो प्रत्यक्ष अनुभव होता है वह नहीं हो सकेगा । क्योंकि वह और आरमा एवं खनके विबर्स और अवस्थाओं में अन्योन्यामुघ सामने पप गाय और आम्मन्तर का विभाग नहीं हो सकता। किन्तु यह शंका केवल आपाततः उचित हो सकती है, क्योंकि आत्मा के भेवाऽमेव के कारण तम्यस्वरूप आत्मा के उक्त विर्स और बेहको जनतावस्थाओं में माह्य और आम्मसर के अनुभाग न होने पर भी ममोनास्प और ममोग्राहस्वाभाष रूप से बाहाम्यम्तर का व्यवहार हो सकता है। कहने का आशय यह है कि देश और आस्मा के अन्योन्यानुसंध होने से भारमय भी वेगगत होने से बाझोर देहधर्म आत्मगत होने से आम्यन्तर हो जाते हैं। अत: बह और आत्मधर्म को बाघ और माम्परतररूप में विभवत नहीं किया जा सकता । किन्तु हर्ष-विषादावि चतन्य के वियतों का मानसशान होता है मोर देह की पाल कौमारावि अवस्यानों का मानसशान नहीं होता। प्रत एवं मानसस्वकार से उनका विमाग हो सकता है। और उस विभाग के माधार पर चेतन्य मोर वेह के उक्त प्रत्यक्षानुभव को उपपति भी हो सकती है। जैसा कि-' प बाहिरमोम गाथा में स्पष्ट किया गया है। गाथा का अर्थ यह है कि जन प्रवचन में देह मोर मारमा के मावों का बाह्य पौर पाम्यता इस प्रकार मेव नहीं होता है किन्तु नोहन्द्रिम-ममसे होने वाली प्रतीति और अमतीति के माधार पर उनमें मी माझ पोर माम्यन्तर का व्यवहार होता है। जैन मत में सभी वस्तु मूर्स भौर अमूर्त प्रावि रूपले अनेकान्त स्वरूप है। यहवाम भाव, यामाम्यस्तरमाष-यह मावों का दिमाग केवल प्रवचन का विषय है, वास्सबरहीं है।वंषिषावावि मारमयमा म है वह उनको ममोपाह्यता के कारण होता है। वे धर्म प्रास्मा के परिणाम रूप होने से शारीर और पाणीकोतरह दूसरेको प्रत्यक्ष नहीं होते। वसरों को उनका प्रत्यक्ष न होनाही उन्हें बाराध्यवहार से वंचित कर प्राभ्यन्तर म्पबहार का पात्र बना देता है । पारीर और शमी के समान हर्ष-विषाबाद में परप्रत्यक्षरण की प्रापत्ति नहीं की जा सकती है-पयोंकि परप्रत्यक्ष अमिय से होता है १ न पाको भाषोऽभ्यन्तरवास्ति समये । नोत्रियं पुनः प्रतीरम भवत्पभ्यतविशेषः ।।

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