Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 2 3
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 243
________________ · [ १३३ स्वा० क० टीका और हिन्दी विवेचना ] एवम् उक्तप्रकारेण हि निश्चितम् प्रकुनियादोऽपि सत्य यत्र विज्ञेयः नानुतः उपपस्यन्तरमाह- कपिलो तस्वतीवद्रव्यार्थिकना बलकि पिलप्रणीत्वाचैत्र । नेनानृत एवायं बाद उस्तो भविष्यतीत्यत आह-हिन्यतः स महामुनिः दिव्यः =अद्भुतशीलाचरणशाली, अतो नानृतं ब्रूयात् इति तस्याऽप्ययमेवाऽभिप्राय इति भावः ॥४४॥ सक्रिय सख्यमिदमेव केवलं मन्यसे प्रकृमिजन्म यज्जगत् । आत्मनस्तु मणित विधर्मणः संयमेव भजदेवमाषयोः ॥१॥ आत्मानं समायो यः कर्मप्रकृतिं जगाद जगतां बीजं जगणर्पणे । नद्योऽषि दर्शनानि निखिलान्यायान्ति यद्दर्शने 5 तं देवं शरणं भजन्तु भविनः स्याद्वादविद्यानिधिम् ||२| इति पण्डित श्री पद्मविजय लोदर न्याय विशारद पण्डित शोविजय विरचिताय स्याद्वादकल्पलताभिधानाय शात्रवासमृचपटी काय तीयः स्तबकः संपूर्णः ॥ अभिप्रायः यूरेग्हिहिं गहनो दर्शनसतिर्निररूया दुर्धर्षा निजतसमाधानविधिना । तथाप्यन्तः श्रीमन्त्रयविजयचिद्दिभजने । न भग्ना तिर्न नियतमसाध्यं किमपि मे ॥ १ ॥ यस्यामन् गुरवोऽत्र जीऩविजयप्राज्ञाः प्रकृष्टाशया भ्राजन्ते सनया नयादिविजयप्राज्ञाश्च विद्याप्रदाः 1 प्रेयस्य च म पो जातः सुधीः सोदरस्तेन न्यायविशारदेन रचिते ग्रन्थे मतियताम् १२ || समर्थक सांख्यशास्त्र की रचना की है। कपिल एक महान् मुनि है और अद्भूत शील पोर श्राचरण से संपन्न है अतः वे मिथ्या नहीं कह सकते । इसलिए प्रकृतिवाद के संबन्ध में उन्हों ने जो कुछ कहा है उसका मी वही अमिय मानना चाहिए जो कर्मप्रकृतिवादी मात महषियों का है। व्यापार पू. उपा. यशोविजयजी ने इस विचार का यह कहते हुए उपसंहार किया है कि सांख्य से उनको मित्रता केवल इस कारण है कि सौख्य भी उन्हीं के समान जगत् को प्रकृतिजस्य मानता है। किन्तु आत्मा के सबन्ध में उसने जो यह कहा है कि मात्मा निर्धक होता है। उस विषय में उसके साथ हमारा वैचारिक संग्राम सदा चलता रहेगा ॥ १ ॥ व्याध्याकार ने इस विचार के पर्यवसान में अपनी महाकोशा प्रकट की है कि जिस देव ने श्रात्मा को अत्यंत स्पष्ट रूप में सांसारिक योग के पाय बताया है और जिस देव ने जीवमात्र के कल्याण मार्ग के उद्घाटनार्थ कर्मप्रकृति को जगत का भीज बताया है एवं जिसके दर्शन में समुद्र मे तदीयों के समान अन्य सभी वर्शन समाविष्ट हो जाते है स्याहार विद्या के महान् आश्रम उस देव की ही शरण में संसार के मध्य मनुष्य को उपस्थित होना चाहिये ||२|| अभिप्राय: ० इसको ध्याख्या पहले स्तबक में पा गयी है । wwww तृतीय स्तवक संपूर्ण

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