Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 2 3
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 242
________________ २१२] [ शास्त्रयातासमुचय स्त० ३-रलो० ४४ मावादिति चेत् । न, अन्यशरीरस्य सवात | 'स्वशरीरामावादिति' 'येत् ? न, स्वसंयुक्तस्वेन तस्याऽपि स्वीयत्वात् । 'स्वादृष्टीपगृहीतशरीराभावादि' ति चेत् ? तर्हि उपजीयत्वात् अदृष्टस्यैव तत्वानादिहेतुन्वान तस्य शरीरक्याफ्तियाऽऽत्मनस्तथास्वसिद्धिः । तदुक्तम् "यत्रैन यो दृष्टगुणः स तत्र" इत्यादि । अपि च, आत्मविभुत्वषादे मानादीनामव्याप्यवृतित्वादिकल्पने गौरवमिति न क्रिश्चिदेनन् । अधिक न्यायालोकादौ ॥१३॥ उपरहिरबाह एवं प्रकृतिवादोऽपि चिज्ञगः सत्य एव हि । कपिलाक्सत्यतश्चेष दिल्यो हि स महानिः ॥४४॥ नानाविमान होने की आपत्ति का परिहार नहीं हो सकता । यघि यह कहा जाय कि-'तत्तद् मास्मा के शानावि में सप्तव प्रात्मा का ही पारीर कारण है- सो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि पात्मा के विभु होने से सभी रोरों में उसका सम्बन्ध होने के कारण शरीर का सत्ता प्रात्मा के स्वशरोर और पर पारीर के रूप में विभाग नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि-'स्वपारीर का अर्थ है स्व के पष्ट से प्राप्त गरीर और परशरोर का अर्थ है स्व के पटष्ट से अप्राप्त पारीर, इस रूप में विभु मारमा का भी पारीरषिमाग हो सकता है तो यह भी ठीक नहीं हो सकता। क्योंकि ऐसा मानने पर मष्ट शरीर के विभाग का उपभोव्य होने के कारण तस प्रारमा के प्रष्ट को हो ससन प्रारमा के गानादि का कारण मानमा उचित होगा । पौर उस अदष्ट एक शारीर मात्र में ही व्यास्त होने के कारण प्रास्मा का भी एक शरीर मात्र में ही पाप्त होना उचित होगा। प्रतः पारमा शरीर का समपरिमाण हो सकता है, विभु माही हो सकता । पू.हेमचन्द्राचार्य महाराज ने अपनी अन्ययोगव्यवच्छेद वात्रशिका स्तुसिमें "पत्रक यो इकटगुणः' इस कारिका से इस बात का समर्थन करते हुए कहा है कि-"जितने देश में जिसका गुण देखा जाता है उसने देश में ही उस का अस्तित्व होता है। इससे अतिरिक्त वेश में उस का अस्तित्व मानने में कोई युक्ति नहीं होती। इसके अतिरिक्त प्रात्मा के विभुत्व पक्ष में यह मो बोष है कि यदि प्रात्मा विभु होगा तो उसके शानादि में पम्पाप्मवृत्तिस्य की कल्पना करनी होगी। क्योंकि विभु प्रात्मा के पूरे भाग में जानावि को उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती। पौर यदि मानी जायगी तो प्रात्मा से सम्बस समस्त ब्रज्यों में उसके फलाडफल की प्रापत्ति होगी । प्रतः प्रास्मा मे विभुत्व के सम्बन्ध में जो कुछ कहा जाता है यह तर मगण्य है। इस विषय का विस्तृत विचार न्यायालोक भादि प्रमों में एष्टव्य है।॥४३॥ (प्रकृतिवाव की सापेक्ष सत्यता का अनुमोवन) प्रस्तुत विचार का उपसंहार करते हए ४४ को कारिका में यह बताया गया है कि माहतो की प्रनेकात इष्टि से विचार करने पर साण्य का प्रकृतिवाव भी सत्य सिद्ध होता है। मिथ्या नहीं। वह मिथ्या हो भी नहीं सकता क्योंकि ग्याषिक नय का प्रवलंबन कर कपिल मुनि ने प्रकृतियाव के * 'कुम्माविषनिष्पतिसमेतत् । तथापि देवानुवाहरात्मतस्वमत यादोपहसा पठन्वितिषपात्रयं हेमचन्द्राचार्यविरचितामामन्ययोगम्पयकछेपानिशिकायां इमो.।।

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