Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 2 3
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 236
________________ १२६ ] [शास्त्रबार्तासमुच्चय-स०३ सो०४२ दयोऽप्यात्मनीति चेत् ? इटापत्तिः । तदाह 'रूवारपज्जवा जे देहे जीववियम्मि सुद्धम्मि । ते श्रवणोणाणुगया पण्णाणिज्जा भवाम्म ॥१॥ इति । सन्मति ४८] 'गोरो जानामि' इत्यादिधियस्तथैवोपपता, रूपादि-बानादीनामन्योऽन्यानुप्रवेशेन कञ्चिदकत्या-ऽनेकत्व-मूर्तत्वादिसमावेशात् । अत एव दण्डात्मादीनामेकन्य अनेकत्वं च स्थानाको व्यवस्थितम् । तदाह___ " एवं एगे आया, एगे दंडे अहो किरिया प । कम्पप विस सेण य निबिहजोगसिद्धी वि अविरुदा ॥ १ ॥ [मन्मति: ४६] नन्येवमन्सहर्ष-विपादाबनेकविचत्मिकमेकं चनन्यम् , बहियाल कुमार-यौवनायनेका (नन्योन्यानुगत में विभाग की प्रयुक्तता ) 'जो इस्म परस्पर में अनुगस ते है अर्थात् किनमें परस्पा साहात्म्य होता है उनमें यह और यह एवं घे भर्म इसके और धर्म उसके इस प्रकार का विभाग युक्तिसंगत नहीं होता। मेसे दूध और पानी में जितनेही विशेष पर्याय होते हैं उन्हें दुग्ध पर्याय और जलपर्याय इन वो वर्ग में विभक्त नहीं किया जाता है उसी प्रकार प्रारमा और कम पन्योन्यानुगत होते है अतः उनके पर्यायों को भी बेह पर्याय और मरमपर्याय के रूप में विभक्त नहीं किया जा सकता है, पयोंकि इस प्रकार के विभाजन में कोई प्रमाण नहीं होता।' इस प्रसंग में घाट आपत्ति उठाना कि-'ऐसा मानने पर ज्ञान प्रावि वेह के धर्म हो जायेंगे और स्पाधि भारमा के धर्म हो जायेंगे-'यह ठीक नहीं है. क्योंकि जब मत में पह बात माश्य ही है बसा कि 'पाक्षिपर्यना 'प्रावि गाया में स्पष्ट कहा गया है कि-देह के रूप माधि पर्याय एवं जीवनध्य के पर्याय वेज प्रौर जीवय्य के अन्योन्य प्रनुगत होने से जीवको अवस्थ दशा में एक दूसरे के धर्म रूप में मान्य है।' ऐसा मामले पर 'गोरोऽहं जामामिलइप में देह के धर्म गौरहप और पातमा के धर्म ज्ञानका एक माश्रय में अनुभव हो सकता है। और यति धेह और प्रात्माका अन्योन्यानुवेध-परस्पर तावात्म्म न माना जायगा तो इस अनुभव की उत्पत्ति नहीं हो सकती। वेह और मात्मा में प्रन्योग्यामप्रवेश होमे से रूप प्राधि घेह धर्म मौरमान मादि मारमों में भी भन्मोन्यानुप्रवेश तावातम्यरूप होता है और उनके धर्म का अनुप्रवेश सामामाधिकरण्य यानी एकाश्रयनिष्ठत्व रूप होता है। प्रन्योम्मानुप्रवेश के कारण ही एक वस्तु में एकस्व प्रकल्प तया मूर्तस्व अमूर्तस्य मादि धमों का कथित समाबेश होता है । इसलिए टाणागसूत्र में भी प्रात्मा और दण्ड आदि में एकत्व और प्रारकाव का समावेश बसाया गया है। जैसा कि "एवं एगे माया." इस सम्मति सत्र से भी स्पष्ट होता है। सूत्र का प्रर्ष पह है कि मास्मा स्वकपष्टि से एक होता है और वह तय कियामो सामान्य कोटि से एक होता, किन्तु करण वि से तीन प्रकार के योग की सिद्धि में कोई विरोध नहीं होता इसलिये एक ही मारमा पार पड मावि त्रितयात्मक हो जाता है। समाविण्येवा में दो जीपदय शुद्ध । ते योग्यानुगताः प्रजापनीमा अवस्थे । २ एखमेवारमा एक इश्व भात कियाऽपि । रणविरोषेण विविध योगसिसिपिरुमा।

Loading...

Page Navigation
1 ... 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246