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भ्या कटीका-हिन्दीयि वेचना ]
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मंख्याविशेषादपि नेरसिद्धिः, तथापि लौकिकापेक्षापुढे रेव नद्रेतुन्यात् । ममाप्यपेक्षाखुदरेव तथाव्यग्रहानिमित्तवान् तज्जन्यातिरिक्तसंख्याऽसिद्धेः । परिमाणेऽपि संघात भेदादिकृतद्रय्यपरिणामविशेषरूपे संबव्याय। ओतुन्यारष । दि-फपालात त्रि-कपालघदपरिमाणोत्कर्षस्य दलीत्कादियोपपत्तेरिति । तच्चमप्रन्यमाईतवार्तायां विवेचघिष्यते ।
सम्मार नेश्वर्गमी किमपि साधीयः प्रमाणम् , नवा नदभ्युपगमेनापि तस्य मर्वत्रत्वम् , उपादानपात्रज्ञान मिहावयतिरिक्तज्ञानाऽसिद्धेः, कारणाभाषात , मानाभावाचेति दिम् ||२|| स्वप्रकारक सम्यग वर्शन महीं होता, प्रतः घटभिन्न में घटस्वप्रकाएक प्रमा की आपत्ति नहीं हो सकती। सम्पर्शन और सम्पयज्ञान में मेव होने से प्रमा के प्रति सम्यग्यमान की कारणला का पर्यवसान तस्त्रकारक प्रभा के प्रति तस्वकारक प्रभा को कारणता में नहीं हो सकता।
[अपेक्षाबुद्धि से द्विस्वादि व्यवहार की उपपत्ति संख्याविरोष से भी ईश्वर को सिजि नहीं हो मनाती क्योंकि म्यायमत्त में भी लौकिक प्रपेक्षायद्धि में ही द्वित्वादि संख्या को कारणता सिद्ध है। ईश्वर को लौकिक अपेक्षामिहीं होती, क्योंकि ईश्वर की धुलि नित्य मानी जाती है । और सौकिकशि वही कहलाती है जो इन्द्रिय के लौकिक संनिक से उत्पन्न हो । अतः यह कहना कि- घणक में परिमाण की उत्पति परमाणु में एकस्व की ईश्वरोप अपेक्षाधुद्धि से होती है' यह उचित नहीं हो सकता । प्राति मत में तो मोक्षावधि से हिरवादि संख्या की उत्पत्ति माम्य ही नहीं है। क्योंकि उस मत में प्रपेक्षावनि से ही द्वित्वावि के व्यवहार को उपपत्ति कर सो जाती है । तारपर्प यह है कि न्यायमत में जिस पपेशाबुद्धि को विस्वादिसंख्या का जनक माना जाता है, प्राहंत मत में वह अपेक्षाभुति ही विवादि के व्यवहार में कारण होतो है । तात्पर्य, विस्वादि ग्यवहार को ही ठित्वके स्थान में प्रमिषिक्त कर दिया जाता है। उसी से हिरव का व्यवहार हो जाता है। अतः उस से अतिरिक्त विश्व संख्या की उत्पति मानकर उसके द्वारा हिरव्यवहार के उपपादन का प्रयास अनावश्यक है। प्रस: माहतमत में द्वित्वादिनाम को कोई संख्या न होने से जैन के प्रति हित्य संख्या पारा ईश्वरामुमान का प्रयोग संभव हो नहीं हो सकता, क्योंकि यह प्रयोग प्राप्रयासिशि से प्रस्त हो जायगा । बार्हत मत में परिमाण के उत्पावना मी सिरवादि संसपा को कल्पना नहीं को सातो. ज्योंकि प्राइंस मत में द्रब्य का परिमाण सात-भैस से मिल्पन्न होता है। उस में संख्या की अपेक्षा मही होतो। द्विकपालक घट के परिमाण की प्रपेक्षा चिकपालक घट के परिमाण में जो उत्कर्ष होता है वह भी कपाल के सहयाधिक्य से नहीं होता। शिक दिकपालकसइयात से निकपालकसायात के उत्कर्ष से होता है। व्याख्याकार का कहना है कि इस विषयका तात्त्वि विदेखनमात वार्ता के प्रसंग में किया आयगाइने समस्त विचारों का निसकर्ष यही है कि ईश्वर की सिद्धि में कोई उचित प्रमाण नहीं है और यदि पूर्वप्रशित प्रमागों के आधार पर ईश्वर को स्वीकार कर लिया जाय तो भी उन प्रमाणों से उनकी सर्वज्ञतानाही सिद्ध हो सकती, असे कि पूर्वोक्त अनुमानों में प्रथम अनुमान से ईश्वर जगत् का का सिख किया जाता है। और कर्ता के लिये उपादान कारणों के ज्ञानमात्र को मायापकता होती है। अतः उक्तानुमान से