Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 2 3
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 198
________________ स्था का टीका निषिधन ] [८० त्यप्रतिपादकपरागमस्याऽप्ययमेवाऽऽशयो युक्तः, इति सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतत्वेन तत्प्रमाण्यमुपपादनीषम् । द्रष्यासत्याभिधान चेदं प्रन्थकारस्य तत्प्रमाण्याभ्युपगन्तओवपरियोधार्थम् । इत्येवं परीश्वरन्पसिकरः सचर्कसंपर्कभाग, येषां विस्मितमातनोति न मनस्ते नाम वामाश्याः। अस्माकं तु स एफ एष शरण देवाधिदेवः सुखामोधौ यस्य भवन्ति पिन्दनाय स्वः सपना संपदः ॥१॥ कारिकावार का यह भावाय बताया है कि घर में अगत्कसूत्व का प्रतिपादन करने वाले अन्य शास्त्रों का मौ अमिनग्य शास्त्राऽपिरोपी तों से ही निश्चित करना उचित है। ऐसा करने से सम्यगृष्टि से परिगृहोत होने के कारण अन्यशास्त्रों का भी प्रामाण्य सिहो सकता है | व्यापाकार यशोविजयजी का कहना है कि 'तर्क की सहायता से वेर और पुराण भाबि से भी धर्म का ज्ञान होता है सध्याइसरप का अभियान प्रम्पकार इस दृष्टि से किया है जिस से पेश और पुराग को प्रमाण माननेवाले श्रोताओं को मो गुर भी शान प्राप्त करने का अवसर मोल सके। परमपके सम्बाप में के सम्पूर्ण विचारों का उपसंहार करते हुए म्याख्याकार ने अपना अन्तिम अभिमत प्रकट किया है कि-'समोचीन तकों के सम्पर्क से रिकव के सम्मा में जो आहत सम्मत प्रभावपूर्ण निष्कर्ष प्रस्तुत किया गया है, उस से जिन मनुष्यों का मम हर्ष और विस्मय से उत्फुल्ल नहीं होता वे मिःसह हवप को मलोमता से पस्त है प्रति उनका हश्य यथार्थ बस्तु परे पता करने के है। एम एक धिरज आप्रय है-स्वास्प अवसरों को सम्पत्ति जिन के सुख समुद्र के आगे बिन्दु के समान है | [ ईश्वरकर्तृत्ववाद समाप्त ]

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