Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 2 3
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 209
________________ [ शा.वा. समुझचय स्त०३-रल.० २१-२२ सांख्यानाम् , लोकेऽपिजगत्यपि, आत्मव्यापारजं किञ्चित् किमपि काय नाम्लि, आमध्यापारस्यैवाऽभावात सुतरा तज्जन्यवाभावः । इति सरित्याशयवानां ।।२०।। अत्र प्रतिभेषवार्तामाइसूलम्-अन्ये तु युवतं तत्पक्रियामात्रधर्णनम् । अषिचार्येव तद्युक्त्या , अबया गम्यते परम् ॥१|| अन्ये तु-असत्कार्यवादिनः अवदे, हि यतः, एतत् अनुपदभिहिना , प्रक्रियामात्रधर्णनम्म्यहच्छाक्लसपरिभाषामात्रीपदर्शनम् , न ताचिकमंत्र । तत्-तस्माद् हेतोः, युक्त्याऽभिधार्यक, परं-केवलम् , श्रमायुद्धीक्तमाल्पा, गम्यत उपादीयते ॥२१॥ मृतः । इत्याहमूलम्-गुवामा तु बायो याममा विराजिलयम् । तथापामच्युती चारय महावि कथं भवेत् ॥२२॥ पद प्राधि जितने भी स्यूल कार्य पुष्टिगोचर होते हैं वे सब को आई पचमहाभूतों के हि मावि परिणामों के विलक्षणसंयोगाविरूप परिणाम से ममुद्भूत होते हैं । उनके लिए किसी अन्यतत्त्व को प्रावश्यकता नहीं होती । यह स्वीकार किया गया है कि महाभूतों के हो एक परिणाम से दूसरे परिणाम की उत्पत्ति होती रहती है, पृथ्वी मावि परिणाम भी तत्वरूप नहीं होते, क्योंकि वे किसी कार्य के उपादान नहीं होते, मो किसी कार्य का उपावान होता है वहीं तय कहा जाता है । पृथ्वी मावि के साक्षात् या परम्प रया जिसने परिणाम हाते हैं उन सबों का उपावान पृष्ठो प्रादि तत्व हो होता है । उन परिणामों में परस्पा में उपाशन-उपादेय भाष न हो फर' विपित्तनमितिक माव ही होता है । जैसे मृतिका घट का उपादान न होकर निमित्त है, उपाश्म सो दोनों का पृथ्वीतत्व ही है। साल्पमत में पुरे जगत में कहीं भी प्रात्मा के व्यापार से किसी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि प्रात्मा में कोई व्यापार ही नहीं होता है और जब उस में कोई व्यापार ही महीं होता तो उस का किसी वस्तु का जमक होना किसी भी प्रकार संभव नहीं हो सकता. क्योंकि किसी मो कार्य का अमल करने के लिए कारण को कुछ व्यापार करना पड़ता है मतः जो किसो प्रकार का व्यापार नहीं कर सकता वह किसी कार्य का कारण नहीं हो सकता । इसीलिए सांस्य सिद्धांत में पुरुष को प्रकारण माना गया है-यह साल्पमत का प्रतिपादन हुमा ।।२०।। [युक्ति से सांस्यमत को पालोचना-उसरपक्ष] २१ वीं कारिका में पूर्ववणित सांसपमत के खण्डन का उपहन किया गया है। कारिका का मर्म इस प्रकार है असत कार्यवादी विद्यमों का यह कहना है कि रियास्त्र के अनुसार जगत पोर पुरुष के सम्बन्ध में जो कुछ कहा गया है वह स्वेमाया से स्वीकार की गई परिभाषा का प्रदर्शनमात्र है, उम में कोई प्रामाणिकता महीं है इस लिये युक्तिपूर्वक विचार न कर केवल उपवेश के प्रति शुभक्षामात्र से ही यह उपाय हो सकता है ॥२१॥

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