Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 2 3
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 227
________________ म्या० . टी दिन्नौविवेचना ] पराभिप्रायमाईमूलम्-आत्मा न पाते नापि मुगऽसौ कदाचन । पध्यते मुच्यते चापि प्रकृतिः स्वात्मनेति चेत् ॥३॥ असी प्रत्यक्षसिद्धः आन्मा: न पध्यनेन प्राकृतिकादियधपरिणतो भवति, मवामनमलेशकशिपानां पन्धत्येन समानाताना पुरुषऽपरिणामिन्यासंभवात् । नापि कदाचन मुच्यते, सुचेन्धनविश्नोपार्थवान तम्य म सदाऽवत्यात कुन तहि पन्ध मोक्षी इत्यत आह-वध्यते प्रकृतिरेव स्वारममा स्त्रपरिणामलमणेन बन्धन, पुच्यते नापि तेन प्रकृतिरेष, नत्रय बन्धविश्लेपान । पुरुष तु तानुपचने, मृत्यगतचिव जय-पराजयो स्वामिनीति । तदुक्तम् 'तम्माद् न वष्यने नापि मुच्यते नापि मंगति कश्चित् । संसरति यज्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः ॥ मा, का, ६२]इति । (ममाधने इमि घेल ? [ प्रकृति के बन्ध और मोक्ष को प्राशंका ] ३४ वी कारिका में बन्धमोक्ष के सम्बन्ध में सत्यशास्त्र का मत प्रशित किया है जो इस प्रकार है-मारमा यथार्य रूपमें म कभी भद्ध ही होता है न कमी मुक्त होता है। बद इसलिए नहीं होता है कि प्रात्मा प्रपरिणामी होता है प्रतः वासमा. पलेश और कर्माशयरूपी बघ उसको नहीं हो सकता, क्योंकि यह सन्ध परिणामात्मक है, प्रतः प्राकृतिकमादि के रूप में सपरिणामी मारमा में उसका होना असमय है । प्रात्मा का मोक्ष पूरा लिए ना हो सकता कि ग्रह सर्ववा बन्धमहीन होता है. प्रात: उसमें बन्धननिसिप मोक्ष की सम्भावना नहीं हो सकती । इसलिये आत्मा में कार मोक्ष की अनुपपत्ति बताना प्रसङ्गत है । वस्तु स्थिति यह है कि अन्ध मोर मोल प्रकृति में होते हैं । और प्रकृति में उनकी उपपसि होने में कोई बाधा नहीं है क्योंकि प्रकृति परिणामिमी होती है, पप्तः अपने परिणामों से बांधालाना उसके लिये स्वामाथि है। और जब उसमें बन्ध होता है तो निमित्त उपस्थित होने पर उसमें अन्धनितिरूप मोक्ष का होना भी मुक्ति सकत है। प्रकृति में बाघ पौर मोक्ष मानने पर प्रारमा में बन्ध-मोक्षका ध्यवहार से होगा।' इस प्रश्न का उत्सर यह है कि जैसे युद्ध में जम्पराजय वस्तुतः राजा के सेवक संनिको पाहता है किन्तु उसका प्रौपचारिक व्यवहार राजा में माना जाता है, उसी प्रकार प्रकृति में हाने वाले अन्धमोक्ष का उसके अधिष्ठाता पास्मा में प्रौपचारिक व्यवहार माना जा सकता है। जैसा कि ईश्वरकृष्ण ने 'तस्मात न बध्यते' अपनी इस कारिका में कहा है कि-प्रात्मा के कटस्थ निस्य होने के कारण कोई भी प्रास्मा न कभी संसारी होता है म कभी बह होता है और न कभी मुक्त होता है किन्तु अनेक रूपों में परिणत होने की योग्यता रखने के कारण प्रकृति में संसार, बन्ध मोर मोक्ष होते हैं पुरुष में उनका व्यवहार मात्र होता है जो पूर्णरूप से मौपचारिक-गौण ।

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