Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 2 3
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 228
________________ ११] [ शा० १२० समुचय ०३ ३४ अशेत्तरम् - मूलम-एकान्तेनैकरूपाया नित्यापास सर्वधा । तस्याः क्रियान्तराऽभावान्धमोक्षी सुयुक्तितः ॥३५॥ एकान्तेनेकरूपाया:सर्वथैकस्वभावायाः, सर्वथा निश्यायाश्च सर्वैः प्रकारः प्रवृतिरूपकक्रियायाश्च तस्याः प्रकृतेः क्रियान्तराभावात् = निवृत्तिक्रियाया अभावात् मृयुततः सन्न्यायाद, बन्ध मोक्षौ न । प्रकृति-पुरुषान्यताख्यातिरूपो हि व्यापारः पुरुषव इति तस्यैव मोक्ष उचिता न तु प्रकृतैः, तस्याः प्रत्येकरूपत्वात् पुरुषार्थमचेतनत्वेन व्यापाराऽयोगाच्च | " किञ्च प्रकृते ती पुरुषस्य स्वरूपापय्याने तस्याः साधारणत्वादेकमुक्ती समारोहछेदः, प्रकृतिवदात्मनोऽपि सर्वगतत्वेन 'एकावच्छेदेन मुक्ति, नान्यावच्छेदेन' इत्यपि वक्तुमशक्यस्वात् । तब्बुवन्न मुक्तत्वम्, नान्यमुद्धावच्छेदेन हत्या श्रीयान स्वादनुघोष्यम् बुद्धियोगेन पुरुषस्य संसारित्वे तस्यैव मतप्रसङ्ग || ३ || + + [ नित्य एक स्वरूप प्रकृति में ऋन्ध मोक्ष प्रसंभव ] ३५ व कारिका में पूर्व कारिकार्याणित सांख्यमत का समाधान करते हुए यह कहा गया है कि प्रकृति सर्वा एकरूप और निश्य है। सदा प्रसिसोल रहना हो उसका स्वभाव है । अतः उस इसीलिये उसमें अन्ध और मोक्ष घ्यायल में निवृत्तिरूर अन्यक्रिया नहीं हो सकती । नहीं हो सकते । प्रकृतेरहं पृय में प्रकृति से पृथक हूं जैसा प्रकृति और पुरुष में मेव का ज्ञान पुरुष का ही काय है और वही मोक्ष का साधन है इसलिये पुरुष में ही मोक्ष हो सकता षिहै प्रकृति में नहीं, क्योंकि प्रवृतिशील रहना ही उसका सहज स्वभाव है। यह कहना 'प्रकृति हो पुरुष के भोग और मोक्ष दोनों प्रयोजन का सभ्याधन करने के लिये व्यापाररत होती है अतः वनों प्रयोजन प्रकृति के ही व्यापार से सम्पण होने के कारण प्रकृति के ही धर्म हो सकते हैं। प्रकृति ही उन में पुरुषप्रयोजनत्य उपपन्न करती है। ठीक नहीं हो सकता क्योंकि पृथ्वी प्रचेतन होती है अत एव पुरुष के लिये उसका व्यापाररत होना सम्भव नहीं है। व्यापाररत होने के लिये सत्य का होना प्राणायक है क्योंकि संसार में किसी भी में स्वतन्त्ररूप से सक्रियता नहीं देखी जाती । यह भी जाता है कि पुरुष का मोल न मानकर यदि प्रकृति का हो मोक्ष माना जायगा और प्रकृति के मोक्ष से ही पुरुष का अपने सहज स्वरूप में प्रवस्थान होगा तो प्रकृति के सर्वसाधारण होने के कारण एक की मुक्ति होने पर समस्त संसार का उच्छेव हो जायगा क्योंकि प्रकृति जब किसी एक आत्मा के लिये अपना व्यापार बन्ध करेगी हो उसका वह व्यापार निरोध श्रारमा मात्र के लिये हो जायगा, क्योंकि यह सम्भव नहीं है कि एक ही समय में प्रकृति निर्व्यापार मी हो और व्यापार भी हो कि सध्यापारत्व और निर्यापारस्य में विरोध है । यदि यह कहा

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