Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 2 3
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 214
________________ स्या का टीका और हिन्दी विवेचना ] [ १८३ स्थू कायमधिकृत्याऽप्या:मूलम्-घटाद्यपि कुलालादिसापेक्ष दृश्यते भवत् । अतो न तत्पृधिलगाविपरिणामैकहेतुकम् ॥२५॥ घटायपि स्थलकाय ज्ञानम् . कुलालादिसापेक्ष भवद् दृश्यने, कुलालादीनां तत्राऽन्वयव्यनिरकानुविधानदर्शनगत । अनम्तन पृथिव्याटिपरिणामक हेतुक न भवनि, नियनान्वयव्यतिरेको विना नाशपरिणममऽपि हेतनाग्रहाभायात , तयोश्च कुलालादावविशेषान । 'कार्यगतयाबद्धमानुविधायिन्वान् हेनोः कुलालादी न घटादिहेतन्यमि'ति चेत् ? तर्हि बुद्धिगता रागादयोऽपि प्रकृती म्धीकर्तव्याः, इति संग बुद्धिः भावाटकसपमन्वात् , न तु प्रकृतिः । 'म्थूलम्पनामषहाय मुश्मरूपतया ते तत्र मन्नी नि चेन् ! लयाअवस्थायां सौम्यं बुद्धायपि समानम् , सूक्ष्मन या घटादिगनर्माण कुलालादी कल्पने बाधकामावश ॥२४॥ [घटादि कार्य पृथ्वो आदि के परिणाम मात्र से जन्य नहीं) २५ वौं कारिका में स्यूलकार्यों में कर्तृ सापेक्षता बताते हुए कार्य में भा निरपेक्षता के खण्डन का संकेत किया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है - घटादि कार्य कुलालादि कर्ता को अपेक्षा से उत्तल होता है ग्रह बात वेलने में प्राती है क्योंकि घटावि में कुलालावि के अन्धय-व्यतिरेक का अनुविधान देवा जाता है। अर्थात् फुलाल श्रादि के रने पर घटादि का जन्म होता है और कुलालादि के अभाव में घटादि का जन्म नहीं होता है । इसलिये यह कहना उचित नहीं हो सकता कि 'घटादि कार्य पृथ्वीप्रादि के परिणाममात्र से ही उत्पन्न होते हैं, क्यों कि पृथ्वीमाधि के परिणाम में भी अन्वयव्यतिरेक के बिना घटादि की कारणता का जान नहीं होता है किन्नु अन्वय-व्यतिरेक से ही होता है और जब अन्वय-ध्यतिरेक के नाते पृथ्वी प्रादि के परिणाम को घटादि का कारण माना जाता है तो पृथ्वीमावि के परिणाम के समान हो कुलालादि में भी प्रावयव्यतिरेक होने के नाते कुलातादि में भी घटावि की कारणता मानना प्राधम क है । यदि यह कहें कि 'हेतु में कार्य के सभी धर्मों का सम्बन्ध होना प्रावश्यक होता है किन्तु लालादि में घटादि के सभी धर्मों का सम्बन्ध नहीं होता। अतः कुलालावि घटादि का कारण नहीं हो सकता' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि हेतु में कार्य के सभी धर्मों के सम्बन्ध का होना आवश्यक नहीं माना जा सकता । यदि ऐसा माना जायगा तो प्रकृति में वृद्धि के रागादि धर्मों का भो अस्तित्व मानना होगा और उस दशा में धर्म-अधर्मादि पाठ मावों से संपन्न होने के कारण प्रकृति हो बुद्धि बन जायगी।। यपि यह कहा जाय कि 'धर्म-अधर्मादि पाठ भाव अपने स्थल रूप का परित्याग कर सूक्ष्मरूप से प्रकृति में रहते हैं । अतः वह बुद्धि नहीं हो सकती । क्योंकि स्थल रूप से भावाष्टकसम्मन को ही बुद्धि कहा जाता है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर लयादि की अवस्या में बुद्धि मी बुद्धि न हो सकेगी, क्योंकि उस समय उस में भी भावाष्टक स्थूलरूप से न रह कर सूक्ष्मरूप से ही रहते हैं। और दूसरी बात यह है कि यदि कारण में कार्यगत समी धर्मों का होना आवश्यक हो तब भी कुला

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