Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 2 3
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 220
________________ १०] [ शा. वः समुचय-० ३-नोः ३० तस्मादात्मनो बुद्धी विस्तया उपाधितया वार्तस्वात् न स्त्रोपरागजनकत्वम् । ये वा कथमात्मनोऽकारणत्यम् १ कथं वा तदुपरागस्याऽनिर्वचनीयस्य असतो वा स्वीकारे नोपनिषदद्धमतप्रवेशः एतेन निमृर्तस्य प्रतिविम्बामात्रः शक्यो वक्तुम् असुनि रूपपरिणामादीनां प्रभिषिम्बदर्शनात् द्रव्यस्याऽयमृर्तस्य मात्र नचत्रस्याकाशादेजांनुमा जले दुर-विशालम्वरूपेण प्रतिचिभ्यदर्शनाच्च' इत्युक्तावपि न निम्ताः । 1 · संध से ही होती है। यदि स्फटिक में प्रतीत होनेवाले लोहित्य को स्कटिक का परिणाम न मान कर उस मे भ्रमवश दोपयश प्रतीत होनेवाले पद्मरागादि उपाधियों का ही धर्म माना जायगा तो स्फटिक में उस का साक्षात संबन्ध न होने से परंपरा संबंध से ही उस की प्रतीति मानी होगी अब परपरा संबंध को उस की प्रतीति का जमक मानने पर दूरस्थ स्फटिकावि में पद्मरागादि के लौहिएम का परंपरा संबंध होने से उस में भी लोहित्य की प्रतीति का अतिप्रसंग होगा | और यदि स्प. टिक में लोहित्य के प्रायभूत पद्मरागादि के विद्यमान संसर्ग को साक्षात् संबंध से लौहित्यभ्रम का जनक माना जायगा तो 'श्पटिको न सोहित: स्फटिक लवर्ण का नहीं है' इस विशेष दर्शन काल में स्फटिक में लोहित्य का अन न होने से उति दर्शन को प्रतीति के प्रभाव से विशिष्ट पद्मराग के संसर्ग को स्फटिक में लौहित्य की प्रतोति का कारण मानना होगा एवं स्फटिक में विद्यमान सौहिस्य के श्राश्रयत पचराय के संसर्ग को स्फटिक में परंपरा संबंध से लौहित्य को प्रभा का नियामक मानना पड़ेगा। अतः साध्यपक्ष में अत्यधिक गौरव होगा । उस की पेक्षा न्यायसंगत यही है कि स्फटिकगत पद्मरागसंसर्ग को स्कटिक में लोहित्य का ही जनक माना जाय । अभिभूत और अभिभूत रूप का एकत्र समावेश अनुभव सिद्ध है असे, रात्रि के समय नक्षत्रों का रूप अनमिल रहता है किन्तु दिन में सूर्य के प्रकाश से श्रमिभूत रहता है इसी प्रकार के सनिधान में स्फटिक में प्रनभिभूत लोहित्य और प्रसंनिधान में अभि सहित्य के मानने में कोई विरोध नहीं हो सकस पराग के संनिधान में सहयो उत्पत्ति मानना सब न संभव होता जब लौहित्य याति का नियत्रारंभ माना जाता स नियत दे काल में नियत हेतु से ही प्रारम्भ मानस आता- किन्तु यह मल निरर्थक है। और इस संबंध में और विस्तृत विचार प्रत्य ग्रन्थ में दृष्टस्य है। निष्कर्ष यह है कि श्रात्मा महत है इसलिए वह से या उपाधि से बुद्धि में अपने प्रतिविश्वात्मक उपराग का जनक नहीं हो सकता, यदि जनक होगा तो उसका प्रकारणाथ सुरक्षित रह सकेगा । और वृद्धि में होनेवाले मामा के उपर को यदि प्रतियंजनीय माना आया तो श्रोपनिषद (वेवान्त) मत में, और प्रसत माना जायेगा तो म्यवादी बौद्ध मत में प्रवेश की प्राप्ति होगी । 'सूर्य द्रव्य का हो प्रतिविम्ब हो सकता है प्रसू का नहीं' इस कथन की प्रतिक्रिया में कुछ लोगों का ऐसा कहना है कि मूर्त पदार्थ का प्रतिविम्ब नहीं होता है यह मत अनुचित है, क्योंकि रूपपरि माणावि अमूर्त पदार्थ का भी प्रतिबिम्ब देखा जाता है। अमूर्त य का प्रतिबिम्ब नहीं होता यह मत भी मान्य नहीं हो सकता, क्योंकि प्रश्रनक्षत्र प्रावि से युक्त मतं आकाश द्रव्य का जानुपर्थश्तजल में वरस्य और विवाल रूप में प्रतिबिम्ब देखा जाता है।' किन्तु यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि पूर्वोक्त युक्ति से प्रतिविम्ब एक नामक कार्य है। जो विम्बात्मक कारण से उत्पन होता है अतः यवि

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