Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 2 3
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 224
________________ ११४ ] [ ० ० समुनयस्त०३-२०१२ विशेषनाशानुकूलो व्यापार पत्र बह्महत्ये ति चेत् न तादृशमनः संयोगस्य स्वत एव नश्वरत्वाद, साक्षादूषावानुपपत्तेश्व | 'ब्राह्मणशरीरावच्चिदुःखविशेषानुकूलव्यापार एव अक्षहस्ये' तिथे ? शरीराच्छरीरिणः सर्वथा भेदे तच्छेदादिना तस्य दुःखमपि कथम् ? 'परम्परासम्बन्धेन तदात्पयंत्र धादिति चेत् १ साक्षादेव कथं न नत्संबन्ध ? शरीरावयवच्छेदे एव हि शरीरात् पृथग्भूतावयवस्य कम्पोपलब्धिरुपपद्यते नान्यथा प्राणक्रियाया अपि तन्मात्रोपया बिनाभावात् । आत्मा को देश से एकान्ततः (पूर्णतया ) भिन्न मानने पर हिंसक को उपपत्ति नहीं हो सकली, क्योंकि ब्राह्मण के शरीर की हत्या ब्रह्महत्या नहीं होती, अन्यथा मुताह्मण के शरीर का द करने पर भी वार्ता को ब्राह्मणहत्या को आपत्ति होगी 'मरण के उसे की जानेवाली हत्या ही वास्तविक हत्या होती है, मृत बाह्मण के शरीर का वह मरण के उद्देश से नहीं होता क्योंकि बाके पहले ही ब्राह्मण मुस रहता है। अतः भूतब्रह्मण के शरीर का वह हत्यारूप नहीं हो सकता " यह कथन भी पर्याप्त नहीं है. क्योंकि ब्राह्मण के प्रथमतः मृत होने पर मौ यदि मरण के उद्देश से उस के शरीर का वाह किया जाय तब भी उस बाह्र हत्या नहीं कहा जाता किन्तु पनि शरीर की हत्या को ही त्या माना जायेगा तो उक्त शह में मी हत्या का परिहार नहीं हो सकता। ब्राह्मणाश्म के नाश को हत्या नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आमा के होने से उस का नाश होता ही नहीं है । अतः ब्राह्मणात्मा के नाश को हत्या मानने पर ब्राह्मणघाती भी हत्या से मुक्त हो जायगा । यदि यह कहा जाए कि जिस आत्ममन सयोग से ब्राह्मणशशेरावच्छेदेन ज्ञान उत्पन्न होता है। उस मात्ममन:संयोग का नाशव्यापार ही वाहत्या है तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि ज्ञान उत्पन्न करनेवाला मात्मसंयोग घातक व्यापार न होने पर भी स्वयं ही नष्ट हो जाता है। और उस का साक्षात् घात हो, मो नहीं सकता। 'ब्राह्मणशरीरावच्छेवेन विशेष का जनक व्यापार ही बाहर हैं'यह भी नहीं कहा जाता है, क्योंकि शरीर से प्रारमा को अत्यन्त भिन्न मानने पर शरीर के वन धावि से आत्मा में दु:ख का होना संगत नहीं हो सकता है। यदि यह कहा जाय कि देश के देव श्रादि का आत्मा में परम्परासम्बन्ध होने से मात्मा में भी उस से दुःख का उबय हो सकता है-' तो यह कहने की प्रपेक्षा यह मानना अधिक उचित है कि मामा के साथ रह के वन प्रावि का साक्षात् हो सम्बन्ध होता है, इसलिए ही प्राध्मा को देश से पूर्णतया भिन्न नहीं माना जाता है । देश और प्रारमा में अध्यन्त मैव न मानकर कचित् प्रमेव मानना इसलिए भी मावश्यक है कि शरीर के किसी अवयव का छेद होने पर जब मवयव शरीर से अलग हो जाता है तब भी कुछ समय कवि श्रवयव में कम्प होता है। यह कम्प तभी हो सकता है जब शरीर के अवयव का छेत्र होने पर प्रात्मा के प्रवयव का मो देव हो और आत्मा का छिल अवयव शरीर के छत्र प्रवयव में विद्यमान हो । ऐसा न मानने पर शरीर के अवयव में आत्मा का सम्बन्ध न होने से इस में कम्प नहीं हो सकता। 'आत्मसम्बध के प्रभाव में भी प्रारण की क्रिया से भी शरीर के लि अवयव में कम्प को उत्पत्ति नहीं की जा सकती कि प्राण की क्रिया भी शरीर या शरीर के अवयव में सभी होती है जब उस में आत्मा

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