Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 2 3
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 217
________________ पाक टीका और हिन्दी विशेषना ] ततः किम् 1 इत्याह मूलम् विभक्ते परिणती बुडी भोगोऽस्य कपते । प्रतियोदयः स्वच्छे पथा नन्दमसांऽम्भसि ॥२९॥ विभकमा आत्मभिना, ईदकपरिणतिः - अभिहितपुरुपोपरागपरिणामा च इति कर्मधारयः तस्यां श्री अन्तःकरणलक्षणायाम् अस्य आत्मनः भोगः कथ्यते आसुरिप्रभृतिभिः । किंवत् इत्याह-यथा चन्द्रमसः = वास्तवस्य चन्द्रस्य प्रतिविम्वोदय: = प्रतिपिम्बररिणामः, स्वच्छे= निर्मले, अम्भसि जले ||२६ [ १०७ तदिदमखिलमाकुमा मूलम् - प्रतिविम्बोदयोऽध्यस्थ नासूनत्थेन युज्यते । मुनेरतिप्रसङ्गाच न चै भोगः कदाचन ||३०|| प्रतिभिम्बोइयोऽपि अस्य = अमूर्तत्वेन न युज्यते, खायावन्मृर्तव्येणैव हि प्रतिभास्वाकारं पास्तायो ना[प्र. म. टीका ० ३०५/२ ] "सामा उ दिया छाया अभासुरमया णिसि तु कालाभा । सभामुरगया सदेहवण्णा सुव्वा ॥ १ ॥ इति । , स्वयं विकृत नहीं होता अपितु उस के उपराम सम्बन्ध से स्फटिक ही विकृत होता है उसी प्रकार आत्मा भी शुद्धि में अपने उपराग का जनक होकर भी स्वयं नहीं विकृत होता. किन्तु उस के उपराग से बुद्धि ही विकृत होती है ।।२८ || (बुद्धि में पुरुषोपराग हो श्रात्मा का भोग है श्रासुर) २८ वीं कारिका में पूर्व कारिका के कथन का निष्कर्ष बताया गया है। कारिका का प्रभं इस प्रकार है ef अन्तःकरण रूप है और पूर्व कारिका में घणित पुरुषोपरारूप परिणाम से युक्त है एवं से विभक्त नि है, वास्तव में भोग उसी में होता है। सांख्यशास्त्र के आसुरि आदि विज्ञानों नेप्रामा में जो भोग का उल्लेख किया है वह भोगयुक्त बुद्धि में आत्मा के उपराग के कारण हो है, एवं श्रवास्तव है। यह बात जल में चन्द्रमा के प्रतिविष के दष्टान्स से स्फुट होती है। जैसे फूल चन्द्रमा का निर्मल जल में प्रतिविम्यात्मक परिणाम होता है उसी प्रकार सूक्ष्म बुद्धितत्त्व में श्रविकृत अकारे प्रतिविम्वपरिणामात्मक उपराग हो सकता है ।।२६।। [अमूर्त आत्मा का प्रतिबिम्ब प्रसंगत है ] ३० कारिका में पूर्व कारिका तक समय की ओर से प्रकट किये गये सम्पूर्ण विचार का निराकरण किया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है (१) श्याम तु दिवा छायाकारगत निशितु काखामा । सा ने मागता ।

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