________________
१०० ]
[ शास्त्रयातासमुचय १० ३-५लो० २३
अथ "नाऽस्माभिरपूर्वस्वभावोत्पपा हेतु हेतुमद्भावोऽभ्युपगम्यते यतो रूपमेदादनित्यता प्रमज्येत, किन्त्रपरित्यक्तसर्पभाषस्प सस्य कुण्डलावस्थावपरित्यक्तप्रधानमावस्येव प्रधानम्य महदादिपरिणामाभ्युपगम इति को दोपः, युवत्व द्धन्वादिपरिणामयोरप्यवस्थित एष धर्मिणि पूर्वोसरभावनियमेनाऽपस्थासांकात ?" इत्यभिप्रायमुपर निराकुरुते - मूलम्-तस्प तस्वभावत्यादितिरिकं न सर्वदा ।
अत एवेति तस्य नपारवे ननु तस्कुतः । ॥२३॥ 'तस्यैव प्रधानस्यैव, एवकारेण स्वभावान्तरन्ययस्वेदः, सरस्वभावत्वात-महदादि. अननस्वभावत्वात , तथात्वाऽप्रच्युतावपि महदायत्पतिरित्युपस्कार:ति मेत् । तदा सर्वदा फिन भवति महदादिकम ! प्रकृतिसंनिधानस्य सर्वदा सस्वादेकहेलयेव जगनु म्यान , समर्थम्प कालक्षेपाऽयोगादित्याशयः। परः प्राह-अत एव कदामिज्जननस्य भावत्वादेव न सर्वदोत्पत्तिप्राविका कारण होने के लिए अपने पूर्वस्वहम का त्याग और नये स्वरूप का ग्रहण करना होगा पौर यह होने पर उसकी नित्यता समाप्त हो जायगी । अतः निरमप्रकृति से प्रनिम्प महत् प्राबि की उत्पत्ति युषितसंगत न हो कर उपदेष्टा के प्रति मतूट श्रदामात्र होने के कारण ही मानी जा सकती है ॥२३॥
(प्रकृति को नित्यता के अचाप में माशंका) २३वी कारिका सांख्यों के एक विशेष मिप्राय के निराकरणार्य प्रस्तुत है।बह अभिप्राय यह है कि-कार्यकारणभाव के लिए नये रूप की उत्पति और पूर्वका का परित्याग पावायक नहीं है जिस से रुपमेव से प्रकृति में प्रनित्यता की नापत्ति हो । किनु स जसे प्रपने सर्पभाव का परित्याग विना किये हो कुणालावस्था का जनक हो जाता है, उसी प्रकार प्रकृति अपनी प्रधान अवस्था का परित्याग बिना किये भी महत् प्राधिका कारण हो सकती है ऐसा मानने में कोई दोष नहीं हो सकता। इस बात को अन्य प्रकार से भी समझा जा सकता है-व्यक्ति में पौवन, वार्थक्य इत्यादि परिणाम व्यक्तिरूप धर्मी की स्थिरता का पात न करके ही उस में कम से उत्पन्न होते हैं और उन में पूर्वोत्तरभाव का नियम होने के कारण लोकर्ष नहीं होता । उसी प्रकार प्रधान में भी जस को नित्यताको बाधित किये बिना ही महान् पावि पसंकीर्ण परिणामों का उदप यदि माना जाय, तो कोई हानि नहीं हो सकती।
समभिप्राय को जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है और उस के निराकरणार्य जो बात कही गयो है वह कारिका की व्याख्या में स्पष्ट है व्याख्या इस प्रकार है
प्रधान स्वयं हो ( -अपने पूर्व स्वभाव को परिस्माग मिना कियेही) मास प्रावि के उत्पावक स्वमाष से संपन्न है। मत: प्रधान अपने सहन स्वरूप में ज्यों का त्यों स्थित रहते हए भी जस से महत मादिको उत्पत्ति हो सकती है।" माल्यो की मोर से महत् प्रावि तत्वों और कार्य-कारण भाग के विषय में ऐसा ममित्राय व्यक्त किया जा सकता है, किम्नु यह टोक नहीं है पोकि महत