Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 2 3
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 206
________________ स्पा०० टीका-हिन्दी विवेचना ] [ex ततो महत्तत्रादहङ्कारीत्पत्तिः । भवति is स्वप्नावस्था 'ल्यामोऽहम् पराहोऽहम् ' इत्यभिमानः, न तु 'नरोऽहम्' इत्यभिमानः । अस्ति च तत्र नरत्वं संनिहितमिन्द्रिय मनःसंबन्धश्व | असो नियतस्यामिमानय्यापारकाहङ्कारसिद्धि: । ततः पश्च तन्मात्राणि, एकादशेन्द्रियाणि च । पश्च तन्मात्राणि शब्द रूप-रस- गन्धस्पर्शाः सूक्ष्मा उदात्तादिविशे१रहिताः । एकादशेन्द्रियाणि च चक्षुः श्रोत्रम्, घ्राणम् रसनम्, स्वमिति बुद्धीन्द्रियाणि या पाणिपादपायूपस्थाः पञ्च कर्मेन्द्रियाणि मनश्येति । पश्च " [ स्वप्न में "मैं वाथ हूं" इस प्रतीति का उपपादक अहंकार ] महल तर का खेलनोऽहं करोमि' एवं 'ममेदं कर्तव्यं' इन श्रध्यवसायों द्वारा परिचय दिया गया है । और प्रकृति से उस की उत्पत्ति का भी युक्तिपूर्वक समर्थन किया गया है। अभी यह बताना है कि हम से शुङ्कारनामक तीसरे तत्व की उत्पत्ति होती है। इस अहङ्कार का भी अस्तित्व मानमा अत्यन्त प्रावश्यक है क्योंकि स्वप्न की प्रवस्था में मनुष्य को यवा कया इस प्रकार का अभिमान होता है 'महं व्याघ्रः श्रहं वराहः न तु नरः' में व्याघ्र में कर हूँ मनुष्य नहीं हूं'। इस भ्रभुमान के समय नर सहित रहता है और इन्द्रिय-मन का सम्बन्ध भी समिति रहता है। किन्तु ध्यात्व या वराहृत्य प्रसनिहित रहता है और उस के साथ इन्द्रिय और मन का सम्बन्ध भी नहीं रहना फिर भी उस का प्रमिमान होता है इसको उपपत्ति इन्द्रिय और मन के द्वारा नहीं हो सकती, euter एवं अराहत्व के प्रसंनिहित होने से उस के साथ दृद्रिय और मन का सम्वस्य ही नहीं रहता फिर भी उस का अभिमान होता है । इस को उपपत्ति इन्द्रिय और मन के द्वारा नहीं हो सकती, क्योंकि व्याघ्रस्थ एवं वराहश्व के प्रसंनिहित होने से उस के साथ इन्द्रिय और मन का सम्बन्ध ही नहीं रहता और यह नियम है कि इद्रिय और मन सम्मवस्तु का ही ग्रहण कराने में समर्थ होते हैं। अतः इस अभिमान को उपपन्न करने के लिये महङ्कार का मस्तित्व मानने पर अमिमान को उत्पत्ति सुकर हो जाती है क्योंकि जाप्रतकाल में मनुष्य को व्याप्रत्य वरात्यादि का अनुभव होता है वह सूक्ष्मावस्था में महङ्कार में स्थित हो जाता है। स्वप्नावस्था द्वारा उस सूक्ष्मरूप से स्थित अनुभव का उद्बोधन होने से व्यानश्व वराहस्थ के उक्त अभिमान का उदय होता है । जातकालिन उक्त अनुभव का बुद्धि में सूक्ष्मावस्थान मान कर स्वप्नावस्था में उस का उद्बोधन होकर बुद्धि में ही उक्त प्रभिमान रूप व्यापार का उदय नहीं माना जा सकता क्योंकि वृद्धि इन्द्रिय आदि द्वारा विषयों से सम्बद्ध होकर श्री ज्ञानात्मक परिणाम को उत्पन्न करती हैं किन्तु महङ्कार को अपने उक्त अभिमानाश्मक व्यापार को उत्पन्न करने के लिये इप्रिय एवं विषयादि की अपेक्षा नहीं होतो । स स्वप्नावस्था में महङ्कार द्वारा ही उक्त प्रभिमान को उपपत्ति हो मकती है। अतः उक्त अभिमान के निर्वाहार्थ प्रहार का मस्तित्व मानना अनिवार्य है । इस प्रकार नामक तीसरे तस्व से पा सन्मात्रा और ग्यारह त्रिय इन सोलह तहकों की उत्पति होती है । तस्मात्रा का अर्थ 'तदेव इति सम्मानं' इस व्युत्पत्ति से इस प्रकार की वस्तु है जिस का एक हो स्वरूप होता है। जिस में भवान्तर धर्मों का सम्बन्ध नहीं होता से सूक्ष्म वाद रूपरसगन्धका सूक्ष्मशम्य में उवास प्रमुखात्तावि का मेव न होने से वह शुद्ध मात्र स्वरूप होने से शब्दसम्मान कहा जाता है। सूक्ष्म रूप भी मीलस्य पीतत्वादि भेदों से शून्य होने के कारण मतमात्र कहा

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