Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 2 3
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 200
________________ स्वा०क० टीका-हिन्दी विवेचना ] [ "मेदानां परिमाणात् समन्ययाच्छक्तिसंप्रवृध । कारण कार्य विभागादविभागाद् वैश्वरूयस्य ॥ १॥" (सांख्यकारिका १५ ) इति । न चाऽसदेव महदादिकमुत्पद्यताम् किं तत्समन्वयार्थं प्रकृत्यनुसरणेन इति षाश्वपम् असतोऽनुत्पत्तेः । तदुक्तम् "असद करणानुपादानग्रहणात् सर्वसंभवाभाषात् शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत् कार्यम् ॥" [सं० का ० ९] असतः शशविषाणादेः सभ्वस्य कतुमशक्यत्वाद सत एव हि सत्कारणम्, तद्धर्मत्वात्, टच तिलेषु स एव तैलस्य निष्पीडनेन करणम् असतस्तु करणे न निदर्शनम् । न विद्यमानप्रागभावप्रतियोगित्वरूपस्यासवस्य विद्यमानत्वरूपस्य व साम्य न विरोध इति साम्प्रतम् लाघवादविद्यमानत्वस्यैवाऽयच्चरूपत्वात् तेनैव सर्वत्रानुगता सन्चयवहारात् । + 1 " रोगी है कि प्रकृति के का बहाव कारण-सा होता है। अतः यदि महत्तव आदि का कोई कारण न होगा तो उनमें कार्यय काहार नहीं हो सकेगा। (६) प्रकृतितत्त्वसमर्थक यह भी एक तर्क है कि प्रकृति के अभाव में प्रावस्था में सूत आदि कार्यों का सम्मान आदि के कम से एक कारणावस्था में अविभाग- अधिवेश - हो सकेगा जिस का होना, ठोक उसी प्रकार आवश्यक है जिस प्रकार बुध की अवस्था में युग्म और बधि का अविभाग होता है । प्रकृति के अस्ति के समर्थन में कहे गये इन समस्त सेतुओं को ईश्वरकृष्ण ने अपने 'सांख्यकाfरका' नामक प्रथ में १५ श्री कारिका से अभिहित किया है। जिस का यह अर्थ है कि कार्यों के परि मिल होने से और कारण के साथ अन्य होने से और कारण शक्तियों की प्रवृति होने से तथा कारणकार्य का विभाग होने से और संपूर्ण कार्यों का एक कारणावस्था में अविभाग होने से प्रकृति का अस्तित्व सिद्ध होता है । [ सत्कार्याव में हेतुपखक ] 1 शंका हो सकती है कि महत्तत्वादि कार्यों की उप के पूर्व असम की हो उत्पत्ति मानी जाप तो कारण में पूर्व से ही उसके अश्व को प्रश्यकता होगी। ददतः उस के लिये प्रकृति के अस्ि की नाक है किन्तु यह उचित नहीं है क्योंकि असत् की उत्पत्ति नहीं होतो, सा कि कृष्ण ने सयकरणात्०' इस कारिका में स्पष्ट किया है । कारिका का आशय यह है कि जो अमत् उनको अरब में आते हुए आज तक कभी नहीं देखा गया। इसलिये प्रथमतः सम्पदा ही होता है। अतः अवार्थ न कारण हो होला म कार्य ही होता है। कार्य कारण का धम होता हैं। असत् मानने पर वह कारण का धर्म नहीं हो सकता । अतः उसे उत्पत्ति पूर्व में भी कारण मैं समानता आवश्यक है। यह बेला भी जाता है कि लिल में प्रथमतः विद्यमान ही कातिल देव करने पर प्रादुर्भाव होता है। असदार्थ की उत्पत्ति होने का कोई भी नहीं है । पदि यह कहा बाय कि कार्य का उत्पतिक पूर्व में जो असस्य होता है वह विद्यमान प्रागभाव का प्रतियोगित्वरूप होता है और उत्पति होने पर जो उस का होता है वह विद्यमानरूप होता है। अतः इस प्रकार के असर और सत्वं में कोई विरोध नहीं है। पूर्वकाल में जिसका प्र

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