Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 2 3
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 180
________________ स्पा०क० टीका-हिन्दी विवेचना ] [ ६ नष्टाऽभावेन प्रयोज्यादिशरीरपरिग्रहस्य भगवतोऽयुक्तत्वाद् अन्यादष्टेनाऽन्यस्य शरीरपरिग्रहे चैत्रकृष्टं शरीरं मैत्रोऽपि परिगृह्णीयातुं । 'प्रायष्टेन घटादिवत् ततच्छतत्परिग्रहस्तु मतस्तदाश एवेति म दोष' इति चेत् न घटादावतथावे ऽपि तदीयेशरीरे नदीष्टत्वेनैव हेतुत्वात अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । • · क्योंकि उस अनुमान के कारण में होने वाली प्रवृति से शाम का अनुमान और उस ज्ञान के प्रति उपस्थित वाक्य में कारणता का अनुमान प्रादिभ्रम है, क्योंकि सृष्टि के आरम्भ में प्रयोक्य प्रयोजक शरीर का प्रयत्न और शान निश्ये होता है। घनः उन में कारण को अपेक्षा न होने से उन के कारण नुमान का भ्रम होना अनिवार्य है। और जब कारभूत ज्ञान भ्रम है तब उसके कायंमूल उक्तानुमान भ्रम होना स्वाभाविक है और जब ससद् पद में तल पदार्थ के सम्बन्ध का अनुमान भ्रम हगा तब उससे ससद् पद में तब पवार्थ के सम्बन्ध की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि भ्रम विषय का व्यभिचारी होता है । अतः भ्रम से पदार्थ की सिद्धि नहीं होती ।' तो इसके उत्तर में, यदि कहा जाए कि यह शङ्का उचित नहीं है क्योंकि किसी ज्ञान का भ्रमात्मक होमर उसके कारण गल दोष पर ही निर्भर नहीं है किन्तु तान जिस विषय को ग्रहण करता है उस विषय के अध पर निर्भर है इसीलिये वह्निम पुष्याप्ति का भ्रम होने पर बलि से यदि महानस में को अनुमिति होती है तो वह अपने कारण उक्त व्याप्तिज्ञान के अमरूप होने पर भी स्वयं भ्रमरूप नहीं होली क्योंकि महान में धूम का बाध नहीं होता है, अतः सृष्टि के प्रारम्भ में ईश्वर के प्रयोक्यप्रयोजक शरीर द्वारा उस काल के मनुष्य को जो तस पत्र में तब पवार्थ के सम्बन्धको प्रति होगी वह भी काम नहीं हो सकतो क्योंकि तत्तत् पवत पार्थ सम्बन्ध होने के कार उसका बाध नहीं है और दूसरी बात यह है कि अनुमिति का अन्तिम कारण सो पक्षमें साध्य माध्य हेतु का परामर्श' होता है जिसे करम परामर्श कहा जाता है । प्रकृतस्थल में वह परामर्श ल पद में तय पवार्थ सम्बन्ध व्याध्यरूप से तत्तवपदार्थ मानानुकूलस्वरूप का निश्चयरूप है और व विश्व में प्रमात्मकही है श्रतः उक्तानुमिति का जो प्रधान एवं प्रश्लिम कारण है उसके भ्रमरूप न होने से कारण शेष द्वारा हो तत्तत् पद में तल पवार्थ सम्बन्ध को मनुमिति को भ्रमात्मक कहा जा सकता। मत: उस अनुमिति से तल पव में तल पदार्थ के सम्बन्ध को सिद्धि में कोई बाधा नहीं हो सकती, इसी प्रकार ईश्वर कुलालादि शरीर को धारणकर घटपटादि का प्रथम निर्माण करके के निर्माण की परंपरारूप संप्रदाय का प्रदत्तक होता है। इसीलिये श्रुति में कुलाल बाद से उस का अभिवादन किया है तो जैसे 'नमः कुलालेभ्यः नमः कमरेभ्यः' इत्यादि । [ ईश्वर के शरीर ग्रहण का प्रसंभव उत्तरपक्ष ] : सृष्टि के प्रारम्भ में ईश्वर द्वारा व्यवहार प्रवर्तित किये जाने का यह भी ठीक नहीं है. क्योंकि ईश्वर में मष्ट नहीं होता । एष उसके द्वारा प्रयोग्य और प्रयोजक के शरीर का ग्रहण मी पुति सङ्गस नहीं हो सकता क्योंकि शरीर का अशा अपने होमट से होता है। यदि धन्य के अष्ट से की शरीर ग्रहण की स्वीकृति की आयनों तो चैत्र के मष्ट से निर्मित होने वाला शरीर मंत्र द्वारा मी गृत हो सकेगा और उस पारीर से मैत्र को भी सुखदुखादि भोग को प्रति होगी । कब कि यह बात कथमपि मान्य नहीं हो सकती। क्योंकि ऐसा मानने पर तो मुक्स को भी शरीर प्रण का प्रसङ्ग हो सकता है।

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