Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 2 3
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 182
________________ स्था का टीका-हिम्पीविवेचन ] अम्माकं तु नत्र संकोच-विकासम्बभावभूतात्मप्रदेशानुपवेशादुपपत्तेः । नब सवाछेदकतरा चैत्रप्रयत्ने प्रति चैत्रशरीरत्वेनाऽवश्य हेतुता वक्तव्या , अन्यथा मैत्रशरीरावनछेदेन चैत्रप्रयस्यापतः, पाण्यादिचालकप्रयत्नसय एष पुनस्तदापत्तिवारणायावच्छेदकतया मन्प्रयाने ग्यवस्था के अनुसार उन शरीरों द्वारा भूसास्मा में प्रवृत्ति न हो सकेगी । जब कि उन शरीरों द्वारा मृतात्मा में प्रति तो होती है और इस प्रवत्ति का झोनाली उन शरीरों में भूतात्मा का शावेश कहा जाता है। यदि यह कहा जाय कि- 'प्राधिके शरीर में मतावेशका यह अर्थ नाहीं है कि श्रादि शरीराघसदेवेन तास्मा में प्रवत्ति होती है किन्तु चैवारमा के साथ भूतात्मा का एक विशेष प्रकारका सम्बन्ध हो जाता है। जिस के कारण उन शरीरों के अधिष्ठाता प्राणियों के प्रयत्न से ही उस में मसाधारण प्रकार को भेष्टाएं होने लगती हैं तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर मसशरीर में तावेश की उपपत्ति न हो सकेगी। क्योंकि मतशरीर के साथ उस व्यक्ति का सम्बन्ध सूट जाता है समास के असा पग परः । स भूवेश से उस शरीर में होनेवाली चेष्टाएँ उस शरीर के प्रधिष्ठाता जीव के प्रपरन से उत्पन्न नहीं मानी जा सकसी । प्रत: उन्हें मूताश्मा से ही उत्पन्न मानना होगा और यह तब ही हो सकता है जब मसशरीरावम्वेवेन भूतात्मा में प्रबरन की उत्पत्ति मानी जाय । प्रतः इस पवस्था का साग करना होगा कि जो पारीर जिस के प्रकट से उत्पन्न होता है उसी शरीर से उस में प्रयत्न को उत्पत्ति होती है । इसोसिये सृष्टि के पारम्भ में जो शरीर उत्पन्न होते हैं वे यवपि भगवान के नहीं उत्पन्न होते तब भी भगवान में तस पारीद्वारा प्रयास का उचय हो सकता है. जिस से उन पारी में चेष्टा की उत्पत्ति हो कर उनके द्वारा व्यवहार का प्रवर्तन हो सकता है और यदि ईयर में प्रपन की उत्पति कथमपि प्रमोष्ट न हो तो ईश्वर का नित्य प्रपरन ही तसद पारीर से प्रश्नमदेव हो सकता है। वह प्रक्षच्छेचस्व जन्यत्वरूप न होकर स्वरूपसम्बन्धविशेषरूप हो सकता है । असे नित्य पाकाशमें धारयत्व होता है" [प्रात्मा के संकोच-विकास से भूतावेश ] सो यह शाहका ठोक महीं है, क्योंकि बत्रवारीरावन मंत्रप्रघरम की उत्पत्ति के परिहारार्थ यह नियम मामना अनिवार्य है कि जो शरीर जिस प्राणी के प्रा से उत्पन्न होता है तशरीरावध्वेमंव उस प्राणी में प्रयत्म की उत्पत्ति होती है । इस नियम के मानने पर जो भूतावेश की अनुपपत्ति प्रदर्शित की गई है बह नैयायिक के ही मप्त में प्रसास होती मंत मत में बह भनुपपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकिमासमत में आस्मा प्रवेशवान होता और उस के प्रदेश सहकोच-विकासशासी होते है। इसलिये पंधावि के शरीर में भी भूतात्मा के प्रवेश का उसोप्रकार प्रमुप्रवेश हो सकता है जैसे चंबावि के शरीर में चैत्रावि के प्रात्मप्रवेशका मनुप्रवेश होता है । भूतात्या के प्रदेश का चंद्रादि के शरीर में यह पनुप्रवेश ही भूतावेश कहा जाता है। और इस अनुप्रवेश के कारण प्राविशरीराषच्छेवेन भूतात्मा में प्रवति हो सकती है क्योंकि जिप्स शरीर में जिस प्रारमा का प्रवेश प्रविष्ट होता है तमासेरावच्छेवेन उस प्रात्मा में प्रयत्न होने का नियम है। भूतात्मा के प्रदेश का यह अनुप्रवेश सतत शरीर में अपने प्रष्ट से प्रविष्ट होनेवाले मात्मापों के मारष्ट से होता । है। पतः यह मूतावेश उन भारमानों के लिये दुःखप्रय होता है। मंत्र के शरीर में मंत्रामा के प्रदेश का अनुप्रवेश नहीं हो सकता, क्योंकि तपनुकल कोई प्रष्ट नहीं होता । प्रस: मंत्रारीरावग्रेवेन मंत्रास्मा में प्रवृत्ति को प्रापत्ति नहीं हो सकती। किन्तु संया यिकमत में मैत्र

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