Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 03
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 6
________________ * नूतन आवृत्ति के अवसर पर * जैनशासन का एक अमूल्य शास्त्रग्रन्थरत्न ‘सन्मति तर्कप्रकरण'। पू० हरिभद्रसूरिजी के ले कर लघुहरिभद्र महो. यशोविजय एवं आ० श्री विजयानंदसूरिजी आदिअनेक जैन. महापुरुषोंने इस ग्रन्थ का अध्ययन किया, इस ग्रन्थ की गाथाओं के उद्धरण अपने अपने ग्रन्थों में उद्धृत कर के इस ग्रन्थरत्न का गौरव बढाया। इसग्रन्थरत्न के अध्ययन के विना द्रव्यानुयोग में गीतार्थता अपूर्ण रहती है। पू. आ० अभयदेवसूरिजीने इस ग्रन्थरत्न को संस्कृत भाषा में विस्तारयुक्त व्याख्या बनायी। यह ग्रन्थ पढने के लिये अत्यन्त कठिन माना जा रहा था। विरल अभ्यासी इस को हाथ लगाते थे। पू० आ. गुरूदेव भुवनभानुसूरिजी म०ने इसका गहराई से अध्ययन किया। अत एव उनकी उपदेशवाणी अनेकान्तवाद-नयवाद से सुसंक्त बनी रही। उन्हें यह महसूस हुआ कि कठिन ग्रन्थों का अभ्यास प्रति दिन घटता जा रहा है तो इस ग्रन्थ को समझने के लिये लोकभाषा (हिन्दी) में इसे प्रस्तुत किया जाय तो बहुत उपकारक बनेगा। उनकी प्रेरणा से पूरा सटीक सन्मति तर्कप्रकरण हिन्दी विवेचन के साथ प्रकाशित हुआ है। पहले इस का प्रथम खण्ड मोतीशा लालभाग चेरिटी ट्रस्ट (मुंबई) की ओर से प्रकाशित हुआ था जो अब अनुपलब्ध है। बाद में पंचम खण्ड, उसके बाद दूसरा खण्ड प्रकाशित हुआ। सं० २०६७ में चौथा और तीसरा खण्ड तय्यार हुआ। कारण यह था कि प्रथम खण्ड प्रकाशित होने के बाद स्व० पू० गुरूदेवश्री भु० भा० सूरीश्वरजी म.सा. की इच्छा थी अब पंचमखंड का लेखन-प्रकाशन किया जाय। पंचम खंड प्रकाशित होने के बाद दूसरे खण्ड का लेखन-प्रकाशन किया गया। उस के बाद तृतीय खण्ड क्रम प्राप्त था। किन्तु यह अशुद्धि बहुल था अतः पहले चौथे खण्ड का लेखन मुद्रण कार्य किया गया। प्रतीक्षा यह थी कि कोई ताडपत्रीय शुद्ध पाठवाला हस्तादर्श मिल जाय तो तीसरे खंड का शुद्धीकरण हो सके, किन्तु यह आशा विफल हुई। आखिर तीसरे खण्ड का जैसा था वैसा पाठ स्वीकार कर लेखन-मुद्रण किया गया है। इस ढंग से व्युत्क्रम से लेखन-मुद्रण हुआ है। किन्तु स्व० पू० भु. भा. सूरीश्वरजी जन्मशताब्दी वर्ष में प्रकाशकों की भावना अनुसार पहला-दूसरा और पांचवा खंड पुनर्मुद्रित करा कर पाँचों खंडो का एक साथ अब प्रकाशन किया जा रहा है यह बडे आनन्द का पुण्यावसर है। गुजरातविद्यापीठ(अमदावाद) के संस्करण में पंचम खंड में जितने (१३) परिशिष्ट थे वे सब ज्यों के त्यां इस संस्करण के तृतीय खंड के अन्तभाग में अध्ययनकर्ताओं की सुविधा के लिये सभार उद्धृत करके जोड दिया हैं। विद्वद्गण इस का स्वागत-अध्ययन करेगा, अनेकान्तवाद से रोम रोम वासित करके मुक्तिलाभ प्राप्त करेगा यही शुभ कामना । ___ सज्जन श्री पार्श्व कोम्प्युटर्सवाले विमलभाई पटेलने इस ग्रन्थ की नूतन आवृत्ति का कार्य पूर्ण निष्ठा से किया है - उसको हमारा हजारों धन्यवाद हैं। श्री शत्रुजयतीर्थधाम - भु० भा० मानसमंदिर पोष सुदि १३ - शाहपुर Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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