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निवेदन
आचार्य सिद्धसेन दिवाकरकृत प्राकृत सन्मतितर्क प्रकरण तथा उसको आचार्य अभयदेवकृत संस्कृत टीकाका संपादन- प्रकाशन समाप्त करनेके बाद सन्मति तर्ककी गायाओका विवेचन सहित गुजराती अनुवाद विस्तृत प्रस्तावना के साथ गुजरात विद्यापीठ द्वारा ई० १९३२ में प्रकाशित हुआ । इसीके आधार पर उसका अंग्रेजी संस्करण भी ई० १९४० में श्वेताम्बर जैन कान्फ्रेंस द्वारा प्रकाशित हुआ । उक्त अग्रेजी संस्करण में एकाध स्थानो पर प्रस्तावना में वृद्धि की गई थी । शेषांश वैसा ही था । 'सन्मति प्रकरण' की गुजराती द्वितीय आवृत्ति ई० १९५२ में हुई । उस समय प्रस्तावना में कुछ संशोधन किया गया और अनुवाद-विवरणम भी कुछ સંશોધન हुआ | उसी दूसरी आवृत्तिके आधारसे प्रस्तुत 'सन्मति प्रकरण ' हिन्दी में अनूदित होकर प्रकाशित किया जा रहा है ।
इस हिन्दी अनुवाद के समय जहाँ कहीं अशुद्धि या अस्पष्टता मालूम हुई उसे दूर किया गया है तथा मूल प्राकृत गायाओके अनुवाद या विवेचनमे जहाँ कहीं परिवर्तन या परिवर्धनको आवश्यकता प्रतीत हुई वहाँ वैसा किया गया है । इसके लिए जिज्ञासुओको सन्मति १.३०; २.२२; २.२३; २.२४; २.२६; २.२७; २.२८; ३.१; ३.२; ३.३ इत्यादि गाथाओका अनुवाद और विवेचन देखता चाहिए ।
गुजराती प्रस्तावनाका वह अंश ( पृ० १ से ५५ ) जिसमें 'प्रति परिचय' दिया गया है, हिन्दी में छोड़ दिया गया है । उसमें प्राकृत सस्कृत मूल टीका ग्रंथके સંપાવનમાં उपयुक्त अनेक हस्तप्रतियोका विवेचन किया गया है । उस अंशको छोड़ देनेपर भी प्रस्तुत ग्रन्थ में अपूर्णता मालूम नहीं होगी ।
इस हिन्दी संस्करणको प्रस्तावनामै पर्याप्त मात्रामें संशोधन किया गया है और नई सामग्री दी गई है । प्रस्तावनायें संशोधन इसलिए आवश्यक था कि एक तो वह ई० १९३२ में लिखी गई, उसके बाद उसका समग्र रूप से संशोधन करनेका યોગ્ય અવસર મિન્હા નહીં થા મૌન ફ્લુ વીષ નો નય-નય સશોધન દ્ગુણ,ઙલ પ્રવાસમ प्रस्तावनाको संशोधित करना आवश्यक था । विशेषतः इसलिए भी आवश्यक था कि बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तारने ई० १९४९ में 'अनेकान्त' मासिकका जो 'सिद्धसेनाक' नामक विशेषांक प्रकाशित किया था । उसमें बहुत से ऐसे मन्तव्य