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कर्म की प्रबलता का नाश करने के लिए मन अपनी भूमिका के अनुसार जिस समय जो सोचता है, वह सद्विचार कहा गया है । (२५)
यद्यपि मिथ्यात्व की उपस्थिति में सम्यक् विचार नही आ सकते, लेकिन मिथ्यात्व अगर मंद है तो सम्यक् विचार आ सकते हैं । (२६)
कषाय के वशीभूत मत बनो, विषयों की आसक्ति को कम कर दो तथा अज्ञान को दूर करो । इस तरह मनोयोग में प्रवर्तित होना चाहिए । (२७)
दु:ख और द्वेष ये दोनों चित्त के उद्धत प्रवाह है । दुःख से आर्त तथा द्वेष से रौद्र ध्यान होता है । निश्चित ही ये दोनों ध्यान प्राणी के कष्टों का कारण होते हैं । (२८)
दुःख को कोई नहीं चाहता । दुःख इच्छा का विषय नहीं है । दुःख स्वास्थ्य को नष्ट करने वाला है । (शारीरिक और मानसिक दोनों ही स्वास्थ्य दुःख से नष्ट होते हैं) दुःख द्वेष का कारण है । इसप्रकार मोहनीय कर्म के बन्ध का प्रधान निमित्त दुःख है। दुःख संसार का मूल कारण है। (२९)
चित्त की व्याकुलता दुःख है । चित्त का तूटना दुःख है । चित्त की चुभन दुःख है । दुःख चित्त का नाशक है । (३०)
प्रथम प्रस्ताव