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अनुकूल के प्रति जो आकर्षण होता है। प्रतिकूल के प्रति जो उद्वेग होता है। इसे अर्थघटन कहते हैं । इसकी रचना अनेक विचारों को जन्म देती है । (३७)
व्यक्ति और वस्तु के अलग-अलग नाम लेकर, उनके परिग्रह और परिहार करने में जो चित्त का प्रवाह बनता है, उसे प्रतिभाव कहा जाता है । (३८)
प्रतिभाव चित्त का प्रवाह रूप होता है । वह प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक वस्तु के प्रति भिन्न होता है । (३९)
प्रतिभाव से वाणी उत्पन्न होती है। प्रतिभाव से क्रिया उत्पन्न होती है। कुल मिलाकर प्रतिभावों से प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है । (४०)
प्रायशः प्रतिभाव के द्वारा कर्म का रसबन्ध और स्थितिबन्ध होता है । प्रतिक्रिया से प्रदेशबन्ध और प्रकृतिबन्ध होता है । (४१)
यद्यपि स्थिति का भी बन्ध प्रतिभाव से होता है। परन्तु विशेष रूप से रस ही आत्मा की शक्ति का घातक है । (४२)
तृतीय प्रस्ताव