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मेरे साथ जीव की (उपर्युक्त) भाव्यमानता से उत्पन्न संस्कार ही आएंगे । अतः मैं शुभ भावों का विस्तार करूँगा । (७३)
शुभ निमित्तों के प्रति ही मेरा रागभाव हो, अशुभ निमित्त मेरे राग का विषय न बनें । (७४)
इस प्रकार विचार करते हुए धर्म में प्रवृत्त आत्मा अपने आप से तीन स्पष्ट प्रश्न है । (७५)
पूछता
शरीर, धन आदि साधनों के द्वारा मैं जो धर्म करता हूँ, क्या उससे अधिक धर्मसाधना में मैं समर्थ हूँ ? (७६)
समर्थ हूँ और इससे अधिक धर्म करूँगा, तो क्या कोई आदमी इसमें रोकने वाला है ? (७७)
अधिक धर्मसाधना में विरोधी का अभाव है, और यदि अधिक धर्म शुरू किया तो क्या मेरे जीवन में विनाशक विपत्तियाँ उत्पन्न होंगी ? (७८)
तृतीय स्
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